ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
आज रात से ऐसा जिएं कि जो क्षण है, वही है। जो काम आप कर रहे हैं, वही कर रहे हैं। यहाँ सुन रहे हैं तो सिर्फ सुन रहे हैं। इस सुनने में फिर और कुछ भी नहीं। मैं बोल रहा हूँ--उस वक्त अगर आप सोचने लगे, यही गीता में भी लिखा है, तो आप पीछे चले गए। कभी आपने पढा होगा, उससे आप मेल-जोल बिठालने लगे--मैं जो कहता था, उसका आपसे संबंध टूट गया। अगर मैं कुछ कह रहा हूँ--और आप सोचने लगे कि अगर मैं ऐसा करूं या सोचूं, तो कहीं ऐसा तो न हो कि मुझे घर-द्वार छोड देना पडे--आप भविष्य में चले गए। आप समय बताने की जगह लडकी के विवाह का चिंतन करने लगे। क्या होगा मेरी बात से, अगर यह सोचने लगे तो आप आगे चले गए। या पुरानी बातों से मेल करने लगे तो पीछे चले गए। और वंचित हो गए उस बात को सुनने से, जो मैं आपसे कहता था।
जो मैं आपसे कह रहा हूँ अगर उसे ही सुनना है तो उस सुनने के क्षण में फिर और कहीं आप नहीं होना चाहिए। लेकिन यह केवल सुनने के लिए नहीं हो सकता। यह तो तभी हो सकता है, जब हम चौबीस घंटे ऐसा जिएं--जब आप पानी पी रहे हों तो सिर्फ पानी पीएं, और भोजन करते हों तो सिर्फ भोजन, और रास्ते पर चलते हों तो सिर्फ रास्ते पर चलें।
और उस क्षण को ही समझ लें--कि इसके आगे कुछ नहीं और पीछे कुछ नहीं--यही है और इसी में मुझे पूरी तरह मौजूद होना है।
यह तो पहला ध्यान रखने का है, इन तीन दिनों में। कठिन नहीं है, खयाल में आ जाएगा तो बहुत सरल है। कठिन तो वह है जो आप कर रहे हैं। जो मैं कह रहा हूँ वह तो बहुत सरल है। लेकिन अपने पैर पर जूता चढाने जैसी सरल बात भी मुश्किल से खयाल में आती है। कठिन वह है जो आप कर रहे हैं। जिस ढंग से आप जी रहे हैं वह जीना एकदम कठिन है। आश्वर्य है कि हम जीए चले जा रहे हैं। जो मैं कह रहा हूँ वह बहुत सरल है।
यहाँ से लौटते वक्त उसका प्रयोग करते लौटें। और कम से कम तीन दिन तो कोशिश करें। हो सकता है, तीन दिन में उसकी सच्चाई दिखाई पड़ जाए। और फिर जिसकी सच्चाई हमें दिखाई पड जाती है, उससे इस जीवन में अलग होना कठिन है। तीन दिन के लिए हिम्मत करें--पीछे को छोड दें।
छूट गया है अतीत आपसे--आप व्यर्थ ही उसे पकडे हैं। कहाँ है वह कल का दिन? अब कहाँ है? बीता क्षण अब कहाँ है? जो गया, वह जा चुका। जो अभी नहीं आया, वह नहीं आया।
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