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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


उसने सिक्के बीनकर इकट्ठे किये, भीतर गयी और गोश्त लगभग आधा करके ले आयी। बिना कुछ कहे उसने तश्त फिर यान की ओर बढ़ाया। यान ने गोश्त उठाया और मुड़ गया। क्षण-भर बाद सेल्मा ने खिड़की जोर से बन्द कर दी और तब हाथ से टटोलकर अपना चेहरा देखने लगी कि कहाँ-कहाँ सूजा है। एक चौड़ी लाल लकीर उसकी हथेली पर छप आयी।

हार वह नहीं मानेगी, कभी नहीं मानेगी। अपमान से तो और भी नहीं! और यान कौन होता है उसका अपमान करनेवाला, या उस पर क्रोध करनेवाला? मुनाफा वह करती है, मुनाफा सब करते हैं। यान क्या सूवेनिर के नाम पर तरह-तरह का निरर्थक कूड़ा बेचकर मुनाफा नहीं करता? दाम कम या ज्यादा हों यह माँग पर निर्भर है। तबीयत पर निर्भर है। सैलानी लोग सिर्फ शौक के कारण मुँह-माँगे दाम देकर तरह-तरह की फिजूल चीजें खरीद लेते हैं। सभी जानते हैं कि दाम चीज का नहीं शौक का है; तो इससे क्या वह व्यापार अनैतिक हो जाता है? दाम माँग का है, माँग विरोध की स्थिति उत्पन्न होती है, विरोध ध्रुव है और उसे पकड़े ही रहना है...

जरूरत भी शौक का दूसरा नाम है। दोनों ही माँगें हैं। अलग-अलग तरह की सही। शौक पर मुनाफा - जरूरत पर मुनाफा हाँ, फर्क तो है शौक के साथ लाचारी नहीं है जबकि जरूरत के साथ विकल्प नहीं है।

लेकिन विकल्प क्या सचमुच नहीं है? और जोखिम क्या मैं नहीं उठा रही हूँ यहाँ रहकर? क्या मेरी जरूरत का सवाल नहीं है - और क्या मैं कम लाचार हूँ।

फोटोग्राफर पागल होकर मर गया तो मैं क्या कर सकती हूँ? मैं भी पागल नहीं हो गयी, इसीलिए क्या मैं अपराधी हूँ...

सेल्मा के पास तर्क की कमी नहीं थी। लेकिन कुछ था जो कि उसे कोस रहा था। वह भीतर जाकर बैठी थी; फिर बरामदे में आ गयी और चौंकियाँ इधर-उधर ठेल-ठालकर, सीधा रास्ता बनाकर तेजी से लौट-लौटकर बरामदे की लम्बाई नापने लगी। कब रात कितनी घनी हो गयी उसे कुछ पता नहीं लगा, और काल का प्रवाह ही नहीं, मानो नदी का प्रवाह भी कहीं पीछे रह गया। केवल बरामदे में उसके अपने पैरों की आहट ही उसकी एकमात्र साथिन रह गयी।

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