ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
सेल्मा
बोलचाल का मुहावरा जिस तेजी से बदलता है, बस्ती का रूप उससे कहीं अधिक तेजी से बदल रहा था। बातचीत में अभी तक कस्बा ही कहते थे, लेकिन उसमें शहर के सब लक्षण आ चुके थे। बल्कि जिस हिस्से को किसी भी औचित्य के साथ कस्बा कहा जा सकता है वह उसके एक छोर पर पड़ गया था। उतने हिस्से का स्थापत्य कुछ अलग और पिछड़ा हुआ था। सड़कें इतनी तंग थीं कि उन्हें गलियाँ कहना ही ठीक था और वहाँवाले वही कहते भी थे। वहाँ के लोगों के जीवन की गति भी धीमी ही थी और शायद उनके बोलने के ढंग की तरह उनकी जीवन-दृष्टि भी कुछ पुरानी और कुछ पिछड़ी हुई थी। कम-से-कम शहर में, यानी शहर के दूसरे हिस्से में, रहनेवाले लोग उसे पिछड़ा ही मानते थे और जब भी कस्बे के लोगों की चर्चा करते तो उसमें एक व्यंग्य निहित होता था - बड़ा शहराती, छिपा हुआ व्यंग्य, लेकिन शहराती या छिपा हुआ होने के कारण कुछ कम तीखा नहीं।
कस्बे के आगे सीधे-सपाट मैदान में बाग था। वह भी पुराना बाग था; पुरानी और सुस्त चाल से चलनेवाला बाग, जिसमें हलकी-फुलकी, चुस्त और हर मौसम में रूप बदलनेवाली फूलों की क्यारियाँ बिलकुल नहीं थीं; पुरानी और सदा-बहार हरियाली के बीच में जहाँ-तहाँ बहुत बड़े-बड़े, पुराने और धीमी गति से बढ़नेवाले पेड़ थे।
बाग के पार नदी थी - या नदी के किनारे की सड़क थी क्योंकि सड़क ही बाग की मर्यादा बाँधती थी, सड़क के आगे फिर हरियाली का फैलाव था और उसके आगे नदी थी।
हरियाली का ढलाव नदी की ओर था; और हर साल बारिश होने पर सारी हरियाली डूब जाती थी और बाग की मर्यादा-रेखा खींचनेवाली सड़क, नदी की मर्यादा-रेखा बन जाती थी। लेकिन जब नदी उतर जाती थी और हरियाली के नीचे की मिट्टी फिर बँध जाती थी, तब बाग की सैर करनेवाले सड़क पार करके हरियाली की सैर करने भी जरूर आते थे और हरियाली पर टहलते हुए ही नदी के पुल तक जाते थे। पुल था तो नदी का, पर नदी के साथ-साथ हरियाली को भी बाँधता था। धनुषाकार पुल दूर-दूर से दीखता था और हरियाली की सैर करने आनेवालों के क्षितिज का महत्वपूर्ण अंग था। सैर के अन्त में उन्हें प्यास जरूर लगती थी, और कभी-कभी भूख भी लग आती थी, जिसके शमन का प्रबन्ध पुल पर ही था। जहाँ से पुल की उठान शुरू होती थी वहाँ से, बल्कि उसके कुछ पहले सड़क की पटरी पर से ही, अस्थायी दुकानें शुरू हो जाती थीं। पहले झावे या रेहड़ीवाले; फिर उनके बाद बड़ी रेहड़ियाँ आती थीं जिन पर दुकानदार के रहने की भी जगह बनी हुई हो, उसके बाद, धनुष के सबसे ऊँचे खंड पर, कुछ पक्की दुकानें थीं।
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