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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


नदी में बाढ़ हर साल ही आती थी, लेकिन हर साल की बाढ़ सड़क को छूकर धीरे-धीरे उतर जाती थी। ऐसा कभी-कभी ही होता था कि वह और बढ़कर सड़क पर आ जाए। लेकिन जब वैसा होता था तो सड़क के साथ समूचा बाग भी पानी में डूब जाता था और पुल के छोर भी डूब जाते थे। बाग के बड़े-बड़े पेड़ मानो सीधे पानी में उगकर पानी पर ही छाँव करते जान पड़ते थे, और पुल का भी मानो नदी से, या उसे पार करने की जरूरत से, कोई सम्बन्ध नहीं रहता था। मानो पातालवासी जलदेवता ने अपनी शक्ति देखने के लिए भुजा बढ़ाकर एक महाकाय धनुष पानी से ऊपर ठेल दिया हो, ऐसा ही वह तब लगने लगता था। उसकी लोहे और पत्थर की कंकरीट की चुनौती की ओर पीठ फेरकर कस्बे के लोग ऊँचाई पर बसी हुई नई बस्ती की ओर चले जाते थे और पानी उतरने की प्रतीक्षा किया करते थे - जब मानव को जलदेवता द्वारा दी गयी चुनौती का प्रतीक, फिर पलटकर जलदेवता पर मनुष्य की विजय की प्रतीक बन जाएगा, और पुल पर से लोगों का आना-जाना फिर सम्भव हो जाएगा - पुल पर खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें फिर बिकने लगेंगी और आने-जानेवाले न केवल अपनी भूख-शान्त कर सकेंगे, बल्कि तफरीह के लिये घूमते हुए कंघी-रूमाल, फूल-गुलदस्ते भी खरीद सकेंगे। या कि सड़क के किनारे के फोटोग्राफर से यादगार के लिए फोटो भी खिंचवा सकेंगे।

सन 1906 में जो बाढ़ आयी उसे लोग अब भी याद करते हैं। यह कह देने से कि उस शहर या कस्बे के लिए नदी की उस वर्ष की बाढ़ ने रेकार्ड स्थापित किया था, कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता कि वह बाढ़ क्या चीज थी। बाढ़ के साथ भूकम्प भी हुआ था, जिससे नई बस्ती की सड़क में भी बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी थीं और कस्बे के तो मकान ही गिर गये थे। लेकिन सबसे अधिक चौंकानेवाली जो बात हुई थी वह उस धनुषाकार पुल की दुर्घटना थी। पुल पर कुछ लोग इस वर्ष भी थे, जैसे कि हर वर्ष बाढ़ में रहते थे - बाढ़ दो-चार दिन में उतर ही जाती थी और पक्की दुकानवालों को उनका डर नहीं रहता था। इन दिनों के लिए सब सामान उनके पास रहता ही था। नावें भी बँधी रहती थीं जिनसे जरूरत पड़ने पर काम लिया जा सके। पर वास्तव में उनकी जरूरत कभी-कभी ही पड़ती, क्योंकि आम तौर पर बाढ़ में भी पैदल चलकर ही बाग को पार किया जा सकता था। बल्कि कभी-कभी नई बस्ती के कुछ मनचले लोग घुटने तक के रबड़ के बूट पहनकर इस तरह बाग पार करके आते भी थे। और भी शौकीन और सम्पन्न लोग नाव में बैठकर सीधे पुल तक पहुँचते थे जो कि उन दिनों अच्छी-खासी सैरगाह बन जाता था। बाढ़ के दिनों में पुल के ऊपरी हिस्से के चायघर में बैठकर चाय-पानी एक खास बात समझी जाती थी और इसका प्रमाण रखने के लिये लोग - या कभी-कभी प्रेमीयुगल अपने साहस-कर्म की स्मृति बनाये रखने के लिए - वहीं के फोटो भी खिंचवाते थे।

फोटोग्राफर की दुकान में अधिक संख्या ऐसे ही चित्रों की थी जिनमें गलबहियाँ डाले या चाय का प्याला अथवा सिगरेट हाथ में लिये हुए लोग पानी से घिरे हुए बैठे या खड़े हैं।

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