ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
वह इतनी हलकी थी, कि उसे सहारा देकर उठाना ही नहीं, बिलकुल उठा लेना भी कोई बड़ा काम नहीं था। लेकिन मेरी बाँह का सहारा जरूरत से ज्यादा न लेने की कोशिश में उसने उठने के लिए थोड़ा-सा जोर भी लगाया। क्षण-भर के लिए मेरा हाथ बालों के लच्छे को छूता रहा, उसके भार का अनुभव उसे नहीं हुआ। फिर एकाएक उसकी गरदन शिथिल हो गयी और उसके सिर का भार मेरे हाथ पर आ रहा। उसने कहा, 'नहीं, शुक्रिया योके!'
मैंने हाथ खींच लिया और पल-भर उसके चेहरे को देखती रही। मुझे लगा कि उस पर पसीने की बूँदें हैं - ठंडी बूँदें।
उसने कहा, 'शुक्रिया योके, धूप ने आज आना ही चुना है, पर मैं उसे देखना नहीं चुन सकती। उसे भी मेरा शुक्रिया दे दो।'
मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन मुझे कुछ सूझा ही नहीं कि क्या कहा जाए। और वह फिर बोली नहीं - आँखें मूँद पड़ी रही। मैं चुपचाप उसके चेहरे की ओर देखती रही, पर मुझे ध्यान आया कि मुझे वहाँ कुछ करने को नहीं है और मेरे वहाँ खड़े होने का कोई मतलब नहीं है। मैंने उसके कमरे का परदा फिर गिरा दिया और बैठक में आकर उस छोटी होती हुई धूप की थिगली को देखने लगी। इतनी देर में ही उसका आकार बाँका-टेढ़ा होकर सिकुड़ गया था। और एकाएक मुझे लगा कि जिस थिगली को मैं देख रही हूँ वह धूप की नहीं है, फर्श पर पड़े हुए सेल्मा के चेहरे की है।
फर्श पर पड़ा हुआ चेहरा। शरीर से अलग चेहरा-निरा चेहरा, सनातन चेहरा। मैंने मानो ध्रुव सत्य के रूप में जान लिया, वह चेहरा ही सेल्मा है और सेल्मा ही धूप की वह थिगली है जो कभी भी मिट जा सकती है लेकिन फिर भी ज्यों-की-त्यों बनी रहती है क्योंकि उसका होना उसके न होने से अलग नहीं है।
सेल्मा का, सेल्मा के पास कोई इतिहास नहीं है, केवल स्मृति है। सेल्मा भी इतिहास नहीं स्मृति है, शुद्ध स्मृति। वह एक साथ यहाँ भी और अन्यत्र भी जीती है, आज भी और कल भी और सभी दिनों में एक साथ ही जीती है। और इसलिए वह अलग नहीं है, अकेली नहीं है।
और मैं - मैं यहाँ अभी इस क्षण में जीती हूँ - मुझमें स्मृति नहीं है। मुक्त मुझे होना चाहिए, लेकिन मैं इतिहास से क्षयग्रस्त हूँ और अकेली हूँ। मरना सेल्मा को है, मरेगी वह, लेकिन मर रही हूँ मैं, अकेली मैं...
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