ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
14 जनवरी :
धूप की एक पतली-सी किरण। नहीं, छत के रोशनदान के एक कोने से घुसकर फर्श पर गिरा हुआ धूप का एक छोटा-सा चकत्ता।
और हमारी जि़न्दगी में - हमारे कब्र के प्रवास के इतिहास में एक घटना!
मैंने बिना सोचे एकाएक सेल्मा के कमरे में जाकर देखा, 'सेल्मा, धूप! बड़े कमरे में फर्श पर धूप की एक बड़ी-सी थिगली है, देखोगी?'
बुढ़िया चुपचाप थोड़ी देर मेरी ओर देखती रही। फिर मानो मन-ही-मन तय करके कि इस सूचना पर उसे जरूर मुसकराना चाहिए, वह किसी तरह मुस्कुरा दी। फिर उसने धीरे-धीरे गुनगुनाकर कुछ कहा, जो मुझे सुनाई नहीं दिया। और थोड़ी देर मैं यह भी नहीं सोच सकी कि वह मेरे सुनने के लिए कहा भी गया था या नहीं। थोड़ा झिझककर मैंने पूछा, 'सेल्मा, मुझसे कुछ कहा है?' और तनिक उसकी ओर झुक गयी।
वह बोली, 'जाने दो, वह कुछ नहीं।'
मैंने फिर पूछा, 'नहीं जरूर - कोई चीज की जरूरत हो तो... धूप देखना चाहोगी?'
वह कुछ ऐसे ढंग से मुसकायी जैसे अपना अपराध पकड़े जाने पर बच्चा मुसकराता है। 'हाँ, वह मैं चाह सकती थी पर मेरे बस का नहीं है।'
मैंने कहा, 'मैं उठाकर ले चलूँ?'
'वह - नहीं हो सकेगा। - तुमसे नहीं, मुझसे ही नहीं हो सकेगा।'
मैंने कहा, 'अच्छा, मैं यहाँ से दिखा देती हूँ।' और बढ़कर मैंने बैठक की ओर के उसके कमरे का किवाड़ खोलकर परदा एक ओर सरका दिया। उतना काफी नहीं था। मैंने पलँग को भी एक ओर खींच लिया। फिर उसके सिरहाने जाकर कहा, 'मैं बाँह का सहारा देती हूँ, उठकर देख लो!' और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये अपना हाथ उसकी गरदन के नीचे डाल दिया।
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