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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


इस प्रकाश में सेल्मा को देखना आसान नहीं है। लेकिन अच्छा ही है कि मुझे उसकी ओर देखना भी नहीं पड़ता और उससे बोलना भी बहुत कम पड़ता है। वह कमरे से लगभग नहीं निकलती, पलँग से भी लगभग नहीं उठती; और जब उठना होता है तो मेरा सहारा लेने से इनकार करके मुझे कमरे से बाहर भेज देती है। रात में कभी सुनती हूँ कि वह उठी है, एक कदम के बाद दूसरा घिसटता हुआ कदम सुनाई पड़ता है। फिर तीसरा और फिर चौथा... मेरे भीतर एक सशंक प्रतीक्षा उमड़ आती है। मैं तने हुए स्नायुओं और सुई-सी एकाग्र श्रवण शक्ति से वह घिसटना सुनती रहती हूँ और कदम गिनती रहती हूँ जब तक कि अन्त में पलँग की हलकी-सी चरमराहट के साथ एक चरम क्लान्ति का 'ऊँह!' न सुनने को मिल जाए - उस चरम क्लान्ति का, जो चरम उपलब्धि के साथ आती है - मानो जो कुछ करना चाहा गया था सब कर लिया गया, और कुछ करने को बाकी नहीं रहा। और तब एकाएक ऐसा लगता है कि जीवन पैरों के घिसटने के सिवा कुछ नहीं है, और उसके बीच-बीच जो मुझे अपना ध्यान आता है वह धोखा है, मैं नहीं हूँ और केवल पैरों का घिसटना है।...

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12 जनवरी :

इस बिना कफन की कब्र से क्या वह पहले की ही अवस्था अच्छी नहीं थी? बर्फ के नीचे दबकर मर जाना भी मर जाना है। लेकिन वह दबकर मरना तो है - उसमें कार्य और कारण की संगति तो है! लेकिन यह बिना दबे, बिना बर्फ को छुए भी अहेतुक मर जाना -यह मानो हमारे जीवन के अनुभव का अपमान करता है। और हम मरने पर भी अनुभव का खंडन सहने को तैयार नहीं। शायद यह हमारे करुण विश्वास का - विश्वास की कामना का फल है कि अगर अनुभव है तो हम भी हैं, और अगर कोई अनुभव हमें हुआ है तो हमारे मर जाने पर भी वह नहीं मरता और एक धनात्मक उपलब्धि के रूप में बचा ही रह जाता है। इस करुण विश्वास के सहारे हम यह मान लेना चाहते हैं कि हमीं बचे रह जाते हैं। लेकिन सब झूठ है - कुछ नहीं बचता - हम नहीं बचते; बचने को रहे भी, यह भी नहीं कह सकते! मृत्यु - मृत्यु - उसी की एकमात्र प्रतीक्षा, ऊपर बर्फ हो या न हो - और हाँ, कैंसर भी हो या न हो! क्या सेल्मा की प्रतीक्षा मेरी प्रतीक्षा से इसलिए भिन्न है और मुझे नहीं है, या कि भिन्न इसी बात में है कि उसके पास कारण की संगति का सबूत है और मेरे पास वह भी नहीं है? क्या मैं ज्यादा लाचार, ज्यादा दयनीय - ज्यादा मरी हुई नहीं हूँ? क्या मुझे ही ज्यादा कैंसर नहीं है - वह कैंसर जिसे हम जिन्दगी कहते हैं?

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