ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
मैंने हिचकिचाते हुए कहा, 'लेकिन तुम स्वतन्त्र हो सेल्मा, मुझे तो लगता है कि तुम स्वतन्त्र हो! और शायद तुम्हारा यह कहना ठीक है कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। क्योंकि तुम्हारी इसी बात पर मुझमें कुढ़न होती है।'
बुढ़िया ने देर तक कोई जवाब नहीं दिया। पर जो कहा वह जवाब नहीं था, यद्यपि कहा ऐसे ही ढंग से गया कि मेरी बात का जवाब दिया जा रहा है। उसने कहा, 'बहुत बड़ा वरदान है जवान होना!'
फिर काफी देर तक उसने कुछ नहीं कहा तो मैंने पूछा, 'लेकिन तुम तो कुछ बात करने वाली थीं?'
'अरे, वह ! मुझे तो माफी ही माँगनी थी, वह मैंने माँग ली। तुमने दे दी - यह तो तुमने अभी नहीं कहा, लेकिन मैं कहला लूँगी। और कुछ -'
वह फिर थोड़ी देर चुप रही। फिर एक लम्बी साँस लेकर बोली, 'मैं थक जाती हूँ।'
मुझे ध्यान आया कि उसने दिन भर कुछ नहीं खाया है। पहले दिन भी लगभग कुछ नहीं खाया था। बल्कि इधर कई दिनों से कुछ नहीं खा रही है। मैंने कहा, 'पहले तुम्हारे लिए कुछ ले आऊँ - थोड़ा-सा गरम शोरबा या कहवा ही।'
उसने संक्षेप में कहा, 'जितनी मेरी जरूरत है, मैं ले लेती हूँ - जितना ले सकती हूँ।'
बात खत्म नहीं हुई थी लेकिन इसके बाद वह पलकें मूँदकर देर तक चुपचाप पड़ी रही तो मैंने बुलाना उचित नहीं समझा और चुपचाप उठ आयी।
11 जनवरी :
इस काठघर में - लिखकर मैं देखती हूँ कि मैंने कब्रघर नहीं लिखा है, काठघर लिखा है -क्या मेरे भीतर कहीं कोई छिपी हुई आशा है? - अब पहले जैसा अँधेरा और झुटपुटे के बीच का-सा प्रकाश नहीं है। ऐसा प्रकाश है जो पहचाना जा सकता है, जो बड़े निर्मम भाव से चेहरे की रेखाएँ और उनकी सलवटों में छिपाना चाहनेवाली जीवन की बेशर्मी को उघाड़कर रख देता है। वह प्रकाश जिसमें किसी चीज की ओर देखते डर लगता है क्योंकि वह पलटकर वापस मेरी ओर देखती है और उस देखने ही में कैसी डरावनी हो आती है। यह मेज, यह पलँग, यह आईने का चौखटा, यह आईने में मेरी परछाईं, ये मेरे अपने हाथ-पैर, ये मेरी उँगलियों की गति। कैसी भयानक है पार्थिवता, स्थूलता, यह गतिमत्ता! मैं मुट्ठी बन्द करती और खोलती हूँ, और मुझे अपनी उँगलियों की गति से डर लगने लगता है। मुझे नहीं लगता कि मैं उनको चलाती हूँ - वे अपने-आप चलती हैं, और कैसा आतंकित करनेवाला है यह विचार कि मेरी उँगलियाँ और यह मेरी उँगलियाँ अपने आप मुझसे स्वतन्त्र एक अपने निरात्म मन से चलती हैं! और उससे भी कितना अधिक भयानक है यह मानना कि अपने आप नहीं चलतीं बल्कि मेरे द्वारा चलायी जाती हैं। क्योंकि तब क्या मैं भी वैसी ही निरात्म हूँ?
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