ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
मैंने कुछ पसीजकर कहा, 'माफी माँगने की कोई बात नहीं है, सेल्मा! मैं तो कहने जा रही थी कि तुमने मुझे इस भूल से बचा लिया कि मैं तुम्हें अमानुषी समझने लगूँ। जो गालियाँ दे सकते हैं वह जरूर इनसान हैं।'
बुढ़िया ने भंडारे से बाहर आते हुए कहा, 'बस अगर इतने ही सबूत की जरूरत थी तब तो बड़ी आसान बात है! बल्कि यह सबूत तो मैं इतना दे सकती हूँ कि तुम उससे मुझे अमानुषी समझने लगो!'
इस छोटी-सी घटना से पायी हुई निकटता दिन भर बनी रहती, अगर भंडारे से आकर कुर्सी पर धप् से बैठते ही बुढ़िया मूर्छित-सी न हो जाती। मैंने उसे सहारा देने की कोशिश की, लेकिन उसने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया। उस अत्यन्त दुर्बल हाथ में आज्ञापना का कुछ ऐसा बल था कि मैं उसे छू न सकी, उसके पास भी न जा सकी। जैसे फिर क्षण-भर में हम दोनों अजनबी हो गये।
रात को उसने कहा, 'कल एपिफानिया का त्योहार है। कल... लेकिन योके, तुम ईश्वर को मानती हो?'
मैं नहीं सोच पाती कि मुझे किसी से यह सवाल पूछने का साहस हो सकता है। यह भी नहीं सोच सकती कि इसका जवाब क्या दे सकती हूँ - कैसे दे सकती हूँ। मैंने कहा, 'मैं नहीं जानती।'
'यों तो मैं भी नहीं कह सकती कि मैं जानती हूँ, कि मैं सचमुच मानती हूँ। लेकिन कभी जब यह बात सोचती हूँ कि मैं मरनेवाली हूँ, और तब मुझे ध्यान आता है कि तुम यहाँ उपस्थित हो - जब मैं अपने से अलग एक सजीव उपस्थिति के रूप में तुम्हारी बात सोचती हूँ - तब मुझे एकाएक निश्चित रूप से लगता है कि ईश्वर है - कि सजीव उपस्थिति का नाम ही ईश्वर है - कोई भी उपस्थिति ईश्वर है। क्योंकि नहीं तो उपस्थिति हो ही कैसे सकती है?'
मैं चुप रही।
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