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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


लेकिन क्या मेरा यह मानना ही ठीक है कि वह हार ही रही है, टूट ही रही है? तकलीफ उसे है, और वह उसे पूरी तरह छिपा भी नहीं सकी है। लेकिन उतने से ही तो हार नहीं सिद्ध होती - कम-से-कम टूटना तो नहीं सिद्ध होता, अगर छिपा न सकने को एक ढंग की हार मान भी लिया जाए।...

दोपहर तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले। मैंने सोचा कि कुछ खाने को बना लूँ, और उससे पूछ भी लूँ कि वह क्या लेगी, लेकिन जब भी उसके पास जाने की बात सोचती तो लगता कि हम दोनों के बीच कोई सामान्य भाषा नहीं है - कम-से-कम इस समय तो नहीं है। मन-ही-मन कुढ़ती हुई मैं अपने कमरे में बैठी रही और सेल्मा बैठक में अपनी अभ्यस्त कुर्सी पर अपनी अभ्यस्त जड़-मुद्रा में।

लेकिन नहीं, वह बैठक में नहीं थी। एकाएक मैंने उसका स्वर सुना तो वह भंडारे से आ रहा था। वह स्वर नि:सन्देह उसी का था, लेकिन उसके स्वर से कितना भिन्न, कितना अभ्यस्त! मैं दबे-पाँव जाकर भंडारे के किवाड़ की ओट खड़ी हो गयी। बुढ़िया भंडारे में चीजें इधर-उधर रख रही थी - रख नहीं, पटक रही थी। और साथ-साथ बुड़बुड़ाती जा रही थी - गालियाँ - मानो जिस भी चीज को छू, उठा या पटक रही थी उसके अस्तित्व को कोस रही थी। और मानो भंडारे की चीजों को कोसकर ही उसे सन्तोष न हुआ हो; उसने भंडारे के बाहरवाले किवाड़ को झँझोड़कर खोला और फिर उसके पीछे से एक लकड़ी खींचते हुए लकड़ी को भी गालियाँ दीं। फिर वह लकड़ी उठाकर मानो किवाड़ को पीटने ही जा रही थी कि वह उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गयी और एक बेबस कराह उसके मुँह से निकल गयी। फिर उसने अपने हाथ की ओर देखकर उसे भी एक गाली दी, 'निकम्मा मुरदा हाथ!'

मैंने भंडारे में जाकर पूछा, 'आंटी सेल्मा, मैं कुछ कर सकती हूँ?'

बुढ़िया सकपका गयी और थोड़ी देर विमूढ़-सी मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ी - एक अद्भुत, अप्रत्याशित, अकल्पनीय खिलखिलाहट - और बोली, 'मैं माफी चाहती हूँ, योके! मैं अपना गुस्सा इन सब बेजान चीजों पर निकाल रही थी। अब कुछ हलका लगने लगा है। गालियाँ भी अजीब चीज हैं - बचपन में सुनी हुई गालियाँ बुढ़ापे में काम की जान पड़ने लगती हैं!'

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