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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

पहले एक आदमी को कुएं में धकेल रहे हैं और फिर उसमें हम रस्सी डाल रहे हैं कि देखो हम तुम पर कृपा करते हैं, तुम बाहर निकल जाओ। न वह उस रस्सी से बाहर निकलता है लेकिन यह उसको पता चलना शुरू हो जाता है कि जो आदमी रस्सी डाल कर हमें बाहर निकाल रहा है। कम से कम इसने हमें धक्का देकर गिराया नहीं होगा। जो ब्राह्मण वर्ग शूद्रों को दान दिलवा रहा है, यह ब्राह्मण तो हम पर कृपा कर रहा है। कम से कम इसने हमारी हालत खराब नहीं की होगी, यह तो पता चल जाता है। मजा यह है कि यही वर्ग उसको दान दिलवा रहा है। यही शरारत है, इसी का षडयंत्र है कि वह करोड़ों लोगों को जमीन पर चित्त डाले हुए है और छाती पर आदमी को खड़ा कर दिया है। एक दफा छाती पर आदमी खड़ा हो गया है, उससे उसको दान भी दिलवा रहे हैं। इसके दोहरे परिणाम होते हैं। वह बेचारा छाती पर चढ़ जाता है, उसको धक्का भी नहीं मार पाता है क्योंकि यह दानी है, यह बचाने वाला है। और यह जो साइकोलाजिकल मेकअप, इस पर मैं चोट करना चाहता हूं। मुझे उतना प्राब्लम दूसरा नहीं है। हमारा मानसिक बनावट का जो ढांचा है गरीबी को संरक्षण देता है, वह टूटना चाहिए।

जैसे गांधीजी हैं। गांधीजी से मुझे कुछ लेना देना नहीं है लेकिन हमारी तरकीब, जो हमारा पुराना माइंड है उसको बदलते नहीं हैं, उस पुराने माइंड को आगे बढ़ाते हैं। कहेंगे कि दरिद्र नारायण हैं, कहेंगे कि गरीब भगवान का रूप है। इस तरह गरीबों को आप आदर और प्रतिष्ठा देते हैं। गरीबों को आदर और प्रतिष्ठा देने से गरीबी मिटने वाली नहीं है गरीबी को तो घृणा करने से और गरीबी पर क्रोध करने से, यह मानने से कि गरीबी महा पाप है, यह मानने से कि गरीबी महारोग है, तो हम नारायण हैं, इसकी सेवा करनी चाहिए। फिर तुम वही सेवा और दान और वही बकवास जारी करवा रहे हो जो पांच हजार साल से जारी है। इससे दो फायदे होते हैं--दरिद्र तृप्त हो जाता है कि हम नारायण हैं और अमीर भी निश्चिंत हो जाता है कि बड़ी अच्छी बातें कर रहे हैं आप। कुछ दान देना चाहिए, कुछ यह करना चाहिए, कुछ वह करना चाहिए। तो उसकी शोषण की व्यवस्था पर चोट नहीं लगती और दरिद्र को अपनी गरीबी में भी सम्मान मिलने लगता है कि मैं दरिद्र नारायण हूं।

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