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अमृत द्वार
अमृत द्वार
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9546
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आईएसबीएन :9781613014509 |
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
बुद्ध एक रात भिक्षुओं की एक सभा में बोलते थे। कोई दस हजार भिक्षु थे। वे बुद्ध की बातें सुने। एक चोर भी उस रात सभा में सुनने आ गया था। चोर भी धर्म सभाओं में बहुत जाते हैं क्योंकि उनको बड़ा भय लगा रहता है कि कहीं कोई गड़बड़ चल रही है, कुछ गड़बड़ न हो जाए। तो वह काफी धर्म सभाओं में जाते हैं, धर्मग्रंथ भी खरीदते हैं और रखते हैं पास में। क्योंकि पीछे कभी उनसे भी रास्ता मिल सकता है। एक चोर भी पहुँच गया था। एक वेश्या भी पहुँच गयी थी उस सभा में। बुद्ध तो रोज बोलते थे, रोज उनका नियम था। बोलने के बाद वे भिक्षुओं को कहते थे अब जाओ, रात्रि का अंतिम कार्य करो। उसका मतलब यह था कि भिक्षु रोज रात्रि को अंतिम ध्यान के लिए जाते थे, फिर ध्यान करके सो जाते थे। रोज-रोज कहने को कोई जरूरत न थी। बुद्ध इतना कह देते कि अब आज की बात पूरी हुई। अब आज रात्रि के अंतिम कार्य में लगें।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओं। जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो। चोर को खयाल आया कि अरे कि मैं कहाँ बैठा, कब से बातचीत सुन रहा हूँ। जाऊं, अपना काम करूं रात्रि का। व्यवसाय का समय हो गया, मेरी दुकान खुलने का वक्त हो गया। वेश्या को ध्यान आया कि बड़ी रात बीत गयी, उसके ग्राहक आने शुरू हो गए होंगे। वह जाए, रात का अपना काम करे। बुद्ध ने कहा, कि रात का कार्य करो। भिक्षु ध्यान करने चले गए, वेश्या वेश्यालय में चली गयी, चोर चोरी करने चला गया। कहने वाला एक ही था, कही गयी बात एक ही थी। तीन ने सुनी, तीन अर्थ हो गए, तीन अलग अर्थ हो गए।
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