ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
|
10 पाठकों को प्रिय 353 पाठक हैं |
ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
इस भूल में मत रहना कि जब आप कृष्ण के वचनों को पढ़ते हो तो आप कृष्ण के वचन पढ़ रहे हैं? आप खुद को ही कृष्ण के वचनों में पढ़ लेते हो। हर आदमी अपने को ही पढ़ता है, किसी दूसरे को कोई नही पढ़ता है। हम अपने को ही पढ़ लेते हैं। किताबें आईने बन जाती हैं। हमारी ही तस्वीर और हमारी ही शक्ल उनमें दिखायी पड़ती है। इसीलिए तो एक- एक किताब की हजारों टीकाएं हो जाती हैं। गीता की टीका तिलक ने लिखी, उसको पढ़ें। गीता की टीका गांधी ने लिखी, उसको पढ़ें। गीता की टीका अरविंद ने लिखी, उसको पढ़ें। बिनोबा ने लिखी, उसको पढ़ें। आप पाएंगे, ये एक ही किताब के बाबत लिख रहे हैं ये लोग कि अलग-अलग किताबों के बाबत? ये चारों आदमी अपनी-अपनी तस्वीर देख रहे हैं। गीता से किसी का कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। गीता बहाना है, अपनी तस्वीर फिर से देख लेने का। कोई भी जब पढ़ता है और समझता है तो अपने को ही पढ़ता और समझता है।
इसलिए जितनी महत्वपूर्ण चेतना आपकी होगी जीवन में आपको उतनी ही बातें दिखायी पडना शुरू हो जाएंगी। जितनी गहरी आपकी अंतर्दृष्टि होगी, जीवन उतना ही आपको दिखायी पडना शुरू हो जाएगा। अगर आँखें अंधी हैं तो गीता में भी धर्म नहीं मिल सकता और अगर आँखें खुली हैं तो रास्ते के किनारे पड़े पत्थर में भी आपको धर्म का पूरा संदेश दिखायी पड़ जाएगा। अगर चेतना सोयी हुई है तो कोई धर्मग्रंथ उसे नहीं जगा सकता। और चेतना अगर जागी हुई है तो सारी पृथ्वी धर्मग्रंथ हो जाती है। सब संदेश परमात्मा के संदेश हो जाते हैं। सब इशारे हो जाते हैं। सब लहरें उसकी लहरें हो जाती हैं। सब ध्बनियां उसकी ध्बनियां हो जाती हैं।
दिनांक ६ मई १९६८
|