ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
कबीर से एक मुसलमान फकीर फरीद मिला था। फरीद निकला था यात्रा को, कबीर उन दिनों मगहर काशी के पास रहते थे। वह करीब से निकला तो कबीर के भक्तों ने कहा कि ऐसा करें, फरीद को दो दिन रोक लें, आप दोनों में चर्चा होगी तो हमें बड़ा आनंद आएगा। फरीद बोला, तुम चाहो रोक लो, चाहो तो आनंद ले लेना, चर्चा शायद ही हो। समझे कि कबीर ने यों ही मजाक में कहा है। फरीद के भी शिष्य जो उसके साथ जा रहे थे उन्होंने कहा कि बड़ा भला हो, दो दिन कबीर का आश्रम पडे़गा, वहां रुक जाएं। आपकी चर्चा होगी, हमको बडा आनंद होगा। उसने कहा कि तुम चाहो तो रुक जाओ, आनंद मिल जाए, लेकिन चर्चा शायद ही हो। उनके भक्त मिले तो दोनों ने कहा, ऐसा ऐसा कहा था। वे दोनों मिले, दोनों गले मिले, दोनों खूब हंसे, दोनों दो दिन रहे, लेकिन अदभुत कथा है कि दोनों कुछ बोले नहीं। दो दिन बाद कबीर विदा भी करने आए दोनों को बाहर, दोनों गले मिल लिए, लेकिन वह बातचीत हुई नहीं। दोनों के भक्त बहुत परेशान हुए और उन्होंने लौटकर पूछा, कि हम तो थक गए दो दिन राह देखकर। कुछ तो बोलते। कबीर ने कहा, बोलते क्या, जो वे जानते हैं, वह मैं जानता हूं। फरीद ने भी कहा, जो वे जानते हैं वह मैं जानता हूं। अनुभूति बिलकुल इनकी एक-सी है, बोलने को कुछ है नहीं।
यह धार्मिक जीवन की अदभुत बात है कि अगर अनुभूति बिलकुल एक सी हो जाए आत्म जीवन की, तो बोलने को कुछ नहीं रह जाता। और जब तक अनुभूति एक सी नहीं है तब तक जो बोला जाता है, वह कोई अर्थ नहीं लेता। तब तक बोला जा सकता है, लेकिन अर्थ नहीं होता। और जब अनुभूति एक सी हो जाए, बोलने को कुछ नहीं रह जाता, तब अर्थ मिल सकता है। अब जैसे हम कहें, केवल ज्ञान। तो कुछ समझाया जा सकता है, लेकिन समझाने से कुछ बोध होगा बहुत, यह नहीं पकड़ में आता। इसलिए हमको अक्सर लगता है कि तृप्ति तो नहीं हुई उस बात को सुनने में। तृप्ति नहीं होगी। तृप्ति तो उस दिन होगी जब थोड़ी सी झलक उस बात की मिल जाए, जब केवल ज्ञान मात्र रह गया।
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