ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
अभी हमको एकदम से दिक्कत होगी, वह ज्ञान मात्र कैसा रह जाएगा? क्योंकि अभी तो हम जब भी जानते हैं ज्ञान को, तब किसी को जान रहे हैं। अभी मैं केवल कह सकता हूं। लेकिन अगर ध्यान का प्रयोग चलें तो किसी दिन समाधि में लगेगा कि अकेला मैं ही रह गया था, केवल ज्ञान मात्र रह गया था। न कोई जान रहा था, न कोई जाना गया था, केवल ज्ञान मात्र रह गया था। न कोई जान रहा था, न कोई जाना जा रहा था, केवल ज्ञान था। केवल एक कांसेसनेस भर रह गई थी। उस वक्त पहला अनुभव मालूम होगा, जो कि सूचना देगा कि मात्र ज्ञान के अकेले रह जाने का क्या अर्थ होगा।
कुछ बातें ऐसी हैं कि शब्द तभी उनको बता पाते हैं जब साथ में अनुभूति भी हो। और सच तो यह है कि हमारे सामान्य जीवन के भी शब्द जब अनुभूति हो तभी कुछ बता पाते हैं। जैसा मैंने कहा, किवाड़--तो मेरा शब्द आपको कुछ सूचना दे पाता है क्योंकि आप भी किवाड़ को जानते हैं। अगर आप किवाड़ को नहीं जानते तो शब्द तो मेरा आपके कान में गूंजेगा लेकिन कोई अर्थ बोध नहीं होगा। शब्द अर्थ नहीं देता, अर्थ तो स्वयं की उसी वस्तु की सामान्य अनुभूति से आता है। मैंने कहा किवाड़, अगर आप भी किवाड़ से परिचित हैं, तो मेरा शब्द सार्थक हो जाएगा। और मैंने कहा किवाड़ और आप किवाड़ से परिचित नहीं हैं तो किवाड़ केवल ध्वनि रह जाएगा, उसमें अर्थ नहीं होगा। तो सामान्य में शब्द तभी बोधपूर्ण होते हैं जब उनकी सामान्य अनुभूति होती है। धर्म के जीवन में दिक्कत है। वहां शब्द भी गूंजते रह जाते हैं। मैंने कहा, आत्मा--ध्वनि है, शब्द नहीं है यह। जब तक कि वहां भी अनुभूति न हो, तब तक यह केवल ध्बनि है। इससे कुछ बोध नहीं होता कि क्या है। एक कान पर एक शब्द गूंजता है आत्मा, और विलीन हो जाता है। अर्थ तो इसमें तब आएगा जब थोड़ी सी अनुभूति भी दूसरी तरफ आएगी।
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