ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
एक साधु मेरे पास थे। वह मुझसे कहे कि मैं बडे़ उपवास करता हूं। मैंने कहा, तुम जब तक उपवास करते हो, तब तक तपश्चर्या नहीं है। जब उपवास हो तब वह तपश्चर्या है। बोले, उपवास कैसे होगा? हम नहीं करेंगे तो होगा कैसे? हम करेंगे तभी तो होगा। मैंने उनसे कहा कि तुम ध्यान का थोड़ा प्रयोग करो तो अचानक कभी-कभी पाओगे कि उपवास हो गया। फिर बाद में, छह महीने बाद में वे मेरे पास आए--हिंदू साधु थे--और उन्होंने कहा, जिंदगी में पहली दफा एक उपवास हुआ। मैं सुबह पांच बजे उठकर ध्यान करने बैठा, उस वक्त अंधेरा था। जब मैंने वापस आँख खोली तो मैं समझा, अभी सुबह नहीं हुआ क्या? पूछने पर पता चला, रात हो गयी है। पूरा दिन बीत गया, मुझे तो समय का पता है, न किसी और बात का। उस दिन भोजन नहीं हुआ। उन्होंने मुझे आकर कहा, एक उपवास मेरा हुआ।
इसको मैं उपवास कहता हूं। हम जो करते हैं, वह अनाहार है, उपवास नहीं है। वह भोजन न करना है। यह उपवास है। उपवास का अर्थ है, उसके निकट वास। वह आत्मा के निकट वास है। उस वास में भोजन का स्मरण नहीं आएगा। तो, वह तो हुआ उपवास। और एक है अनाहार कि तुम खाना न खाए। उसमें भोजन, भोजन का ही स्मरण आएगा। वह तपश्चर्या की हुई, यह तपश्चर्या अपने से हुई। महावीर ने तपश्चर्या की नहीं, यह बात ही भ्रांत है। क्या कोई कभी तपश्चर्या करता है? सिर्फ अज्ञानी तपश्चर्या करते हैं। ज्ञानियों से तपश्चर्या होती है।
होने का अर्थ यह है कि उनका जीवन, उनकी पूरी चेतना कहीं ऐसी जगह लगी हुई है जहाँ बहुत सी बातों का हमें खयाल आता है, वह उन्हें नहीं आता। हम सोचते हैं कि वे त्याग कर रहे हैं और उनके कई बात यह है कि उनको स्मरण भी नहीं आ रहा। हम सोचते हैं उन्होंने बड़ी बहुमूल्य चीजें छोड़ दीं। हम सोचते हैं, उन्होंने बड़ा कष्ट सहा। और वह हमारा मूल्यांकन में, भेद असल में, वैल्युएशन में, हमारे और उनके अलग हैं। जिस चीज को महावीर सार्थक समझते हैं, हम उसे व्यर्थ समझते हैं। जिसको वे व्यर्थ समझते हैं, हम सार्थक समझते हैं। तो तब हम उनको हमारी दृष्टि से सार्थक को छोड़ते देखते हैं तो हम सोचते हैं, कितना कष्ट झेल रहे हैं, कितनी तपश्चर्या कर रहे हैं। और उनकी कई स्थिति बिलकुल दूसरी हैं। जो व्यर्थ है वह छूटता चला जा रहा है।
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