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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

नहीं, इस बीमारी के लिए वह प्रतिकार है। चित्त शांत हो जाए तो यह बीमारी नहीं होती। उसके प्रणाम करने का कोई सवाल नहीं उठता। बीमार होते हैं इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है और अगर हम स्वस्थ हो जाएं तो औषधि व्यर्थ हो जाती है। मूल बात को ही पकड़ें ध्यान में और उसके ही प्रयोग को जारी रखें। धीरे-धीरे जो गौण हैं वे अपने आप बीतने लगेंगे और जो सहयोगी हैं वे दिखायी पड़ने लगेंगे, और उनका काम शुरू हो जाएगा। और जो सहयोगी हों उन पर पहले चिंतन करेगा, वह उन पर नहीं पहुँच पाएगा।

तो मेरी पूरी एफेसिस जो है, जानकर ही आपको कोई और सहयोग की बात नहीं करता। लेकिन वह उतना बड़ा प्रपंच है सहयोग का कि वह उसके धुएं में मूल बात कहाँ खो जाएगी, पता नहीं। इतने ग्रंथ हैं, मैं तो हैरान हो गया हूं। जैन दर्शन पर सैकड़ों अभी किताबें लिखी गयी हैं, उनमें ध्यान पर एक अध्याय भी है? मैं हैरान हो गया कि दर्शन और धर्म पर लिखी गयी किताबें हैं, उनमें ध्यान का एक अध्याय नहीं। ऐसी किताबें मैंने देखीं कि हजार पृष्ठ की किताब है और ध्यान पर दो पन्ने कहीं एक जगह लिखे हुए हैं। बाकी ये सब सहायक हैं जिनका इतना विस्तार हो गया है, जिन पर इतना ज्यादा वाद-विवाद, इतना उपद्रव है और वह एक मौलिक बात है।

प्रश्न-- ध्यान तपश्चर्या में कितनी सहयोगी है?

उत्तर-- ध्यान ही तपश्चर्या है। आज मैंने सुबह या कल रात चर्चा भी किया। तपश्चर्या का हमको जो अर्थ पकड़ गया है, हमको मोटे अर्थ बहुत जल्दी पकडे़ जाते हैं। जैसे, अभी मैं वहाँ गया, वहाँ इस पर बात हो रही थी-- महावीर के उपवास, महावीर की तपश्चर्या। महावीर ने साढे बारह वर्ष तक तपश्चर्या की। हमको लगता है तपश्चर्या की और मुझको लगता है तपश्चर्या हुई। और की और हुई में मैं बहुत फर्क कर लेता हूं।

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