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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या ने शाल समेट दिया और लज्जित हो कर बोली– थोड़ा-सा बाकी रह गया था, मैंने सोचा कि इसे पूरा कर लूँ तो उठूँ।

राय साहब पलंग पर बैठ गये और कुछ कहना चाहते थे कि खाँसी आयी और थोड़ा-सा खून मुँह से निकल पड़ा, आँखें निस्तेज हो गयीं और हृदय में विषम पीड़ा होने लगी। मुखाकार विकृत हो गया। विद्या ने घबराकर पूछा– पानी लाऊँ? यह मरज तो आपको न था। किसी डॉक्टर को बुला भेजूँ?

राय साहब– नहीं, कोई जरूरत नहीं। अभी अच्छा हो जाऊँगा। यह सब मेरे सुयोग्य, विद्वान और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र बाबू ज्ञानशंकर की कृपा का फल है।

विद्या ने प्रश्नसूचक विस्मय से राय साहब की ओर देखा और कातर भाव से जमीन की ओर ताकने लगी। राय साहब सँभल कर बैठ गये और एक बार पीड़ा से कराह कर बोले– जी तो नहीं चाहता कि मुझ पर जो कुछ बीती है। वह मेरे और ज्ञानशंकर के सिवा किसी दूसरे व्यक्ति के कानों तक पहुँचे; किन्तु तुमसे पर्दा रखना अनुचित ही नहीं अक्षम्य है। तुम्हें सुनकर दुःख होगा, लेकिन सम्भव है इस समय का शोक और खेद तुम्हें आनेवाली मुसीबतों से बचाये, जिनका सामान प्रारब्ध के हाथों हो रहा है। शायद तुम अपनी चतुराई से उन विपत्तियों का निवारण कर सको।

विद्या के चित्त में भाँति-भाँति की शंकाएँ आन्दोलित होने लगीं। वह एक पक्षी की भाँति-डालियों में उड़ने लगी। मायाशंकर का ध्यान आया, कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया। ज्ञानशंकर तो किसी बला में नहीं फँस गये। उसने सशंक और सजल लोचनों से राय साहब की तरफ देखा।

राय साहब बोले, मैं आज तक ज्ञानशंकर को एक धर्मपरायण, सच्चरित्र और सत्यनिष्ठ युवक समझता था। मैं उनकी योग्यता पर गर्व करता था और अपने मित्रों से उसकी प्रशंसा करते कभी न थकता था। पर अबकी मुझे ज्ञात हुआ कि देवता के स्वरूप में भी पिशाच का वास हो सकता है।

विद्या की त्योरियों पर अब बल पड़ गये। उसने कठोर दृष्टि से राय साहब को देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। ऐसा जान पड़ता था कि वह इन बातों को नहीं सुनना चाहती।

राय साहब ने उठकर बिजली का बटन दबाया और प्रकाश में विद्या की अनिच्छा स्पष्ट दिखायी दी, पर उन्होंने इसकी कुछ परवाह न करके कहा यह मेरा बहरत्तवाँ साल है। हजारों आदमियों से मेरा व्यवहार रहा, किन्तु मेरे चरित्र-ज्ञान ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। इतना बड़ा धोखा खाने का मुझे जीवन में यह पहला ही अवसर है। मैंने ऐसा स्वार्थी आदमी कभी नहीं देखा।

विद्या अधीर हो गयी, पर मुँह से कुछ न बोली। उसकी समझ में न आता था कि राय साहब यह क्या भूमिका बाँध रहे हैं, ऐसे अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं?

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