सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
राय साहब– मेरा इस मनुष्य के चरित्र पर अटल विश्वास था। मेरी ही प्रेरणा से गायत्री ने इसे अपनी रियासत का मैनेजर बनाया। मैं जरा भी सचेत होता तो गयात्री पर इसकी छाया भी न पड़ने देता। ज्ञान और व्यवहार में इतना घोर विरोध हो सकता है इसका मुझे अनुमान भी न था। जिसकी कलम में इतनी प्रतिभा हो, जिसके मुख में स्वच्छ, निर्मल भावों की धारा बहती हो, उसका अन्तःकरण ऐसा कलुषित, इतना मलीन होगा यह मैं बिलकुल नहीं जानता था।
विद्या से न रहा गया। यद्यपि, वह ज्ञानशंकर की स्वार्थ-भक्ति से भली-भाँति परिचित थी, जिसका प्रमाण उसे कई बार मिल चुका था, पर उसका आत्म-सम्मान उनका अपमान सह न सकता था। उनकी निन्दा का एक शब्द भी वह अपने कानों में न सुनना चाहती थी। उसकी धर्मनीति में यह घोर पातक था। तीव्र स्वर से बोली, आप मेरे सामने उनकी बुराई न कीजिए। यह कहते-कहते उसका गला रुँध गया और वह भाव जो व्यक्त न हो सके थे आँखों से बह निकले।
राय साहब ने संकोचपूर्ण शब्दों में कहा– बुराई नहीं करता, यथार्थ कहता हूँ। मुझे अब मालूम हुआ कि उसने महात्माओं का स्वरूप क्यों बनाया है, और धार्मिक कार्यों में क्यों इतना प्रवृत्त हुआ है। मैंने उसके मुँह से सब कुछ निकलवा लिया है। यह रंगीन जाल उसने भोली-भाली गायत्री के लिए बिछाया है और वह कदाचित् इसमें फँस भी चुकी है।
विद्या की भौंहें तन गईं मुखराशि रक्तपूर्ण हो गयी। गौरवयुक्त भाव से बोली– पिताजी मैंने सदैव आपका अदब किया है। और आपकी अवज्ञा करते हुए मुझे जितना दुःख हो रहा है वह वर्णन नहीं कर सकती, पर यह असम्भव है कि उनके विषय में यह लाँछन अपने कानों से सुनूँ। मुझे उनकी सेवा में सत्रह वर्ष बीत गये, पर मैंने उन्हें कभी कुवासनाओं की ओर झुकते नहीं देखा। जो पुरुष अपने यौवन-काल में संयम से रहा हो उसके प्रति ऐसे अनुचित सन्देह करके आप उसके साथ नहीं, गायत्री बहिन के साथ भी घोर अत्याचार कर रहे हैं। इससे आपकी आत्मा को पाप लगता है।
राय साहब– तुम मेरी आत्मा की चिन्ता मत करो। उस दुष्ट को समझाओ, नहीं तो उसकी कुशल नहीं है। मैं गायत्री को उसकी कामचेष्टा का शिकार न बनने दूँगा। मैं तुमको वैधव्य रूप में देख सकता हूँ, पर अपने कुल-गौरव को यों मिट्टी में मिलते नहीं देख सकता। मैंने चलते-चलते उससे ताकीद कर दी थी, गायत्री से कोई सरोकार न रखे, लेकिन गायत्री के पत्र नित्य चले आ रहे हैं, जिससे विदित होता है कि वह उसके फंदों से कैसी जकड़ी हुई है। यदि तुम बचा सकती हो तो बचाओ, अन्यथा यही हाथ जिन्होंने एक दिन उसके पैरों पर फूल और हार चढ़ाये थे, उसे कुल-गौरव की वेदी पर बलिदान कर देंगे।
विद्या रोती हुई बोली– आप मुझे अपने घर बुला कर इतना अपमान कर रहे हैं, यह आपको शोभा नहीं देता। आपका हृदय इतना कठोर हो गया है। जब आपके मन में ऐसे-ऐसे भाव उठ रहे हैं तब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रुकना चाहती। मैं जिस पुरुष की स्त्री हूँ उस पर सन्देह करके अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती। वह आपके कथनानुसार कुचरित्र सही, दुरात्मा सही, कुमार्गी सही, परंतु मेरे लिए देव तुल्य हैं। यदि मैं जानती कि आप मेरा इतना अपमान करेंगे तो भूलकर भी न आती। अगर आपका विचार है कि मैं रियासत लोभ से यहाँ आती हूँ और आपको फन्दे में फँसाना चाहती हूँ तो आप बड़ी भूल करते हैं। मुझे रियासत की जरा भी परवाह नहीं। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ मैं अपनी स्थिति से सन्तुष्ट हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि मायाशंकर भी सन्तोषी बालक है। उसे आपके चित्त की यह वृत्ति मालूम हो गयी है तो वह इस रियासत की ओर आँख उठाकर भी न देखेगा। आपको इस विषय में आदि से अन्त तक धोखा हुआ है।
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