सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
किन्तु जब दसवें दिन ज्ञानशंकर का विवशता-सूचक पत्र पहुँचा तो पढ़ते ही गायत्री का चंचल हृदय अधीर हो उठा। वह उस विवशकारी आवेश के साथ उनकी ओर लपकी। यह उसकी प्रीति की पहली परीक्षा थी। अब तक उसका प्रेम-मार्ग काँटों से साफ था। यह पहला काँटा था जो उसके पैर में चुभा। क्या पहली ही बाधा मुझे प्रेम मार्ग से विचलित कर देगी? मेरे ही कारण तो ज्ञानशंकर पर मुसीबतें आयी हैं। मैं ही तो उनकी इन विडम्बनाओं की जड़ हूँ। पिताजी उनसे नाराज हैं तो हुआ करें, मुझे इसकी चिन्ता नहीं। मैं क्यों प्रेमनीति से मुँह मोड़ूँ? प्रेम का संबंध केवल दो हृदयों से है, किसी तीसरे प्राणी को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं। आखिर पिताजी ने उन्हें क्यों मुझसे पृथक् रहने का आदेश किया? वे मुझे क्या समझते हैं? उनका सारा जीवन भोग-विलास में गुजरा है। वह प्रेम के गूढ़ाशय क्या जानें? उन्हें इस पवित्र मनोवृत्ति का क्या ज्ञान? परमात्मा ने उन्हें ज्ञान-ज्योति प्रदान की होती तो वह ज्ञानशंकर के आत्मोत्कर्ष को जानते, उनकी आत्मा का महत्त्व पहचानते। तब उन्हें विदित होता कि मैंने ऐसी पवित्रात्मा पर दोषारोपण करके कितना घोर अन्याय किया है! पिताजी की आज्ञा मानना मेरा धर्म अवश्य है; किन्तु प्रेम के सामने पिता की आज्ञा की क्या हस्ती है। यह ताप अनादि ज्योति की एक आभा है, यह दाह अनन्त शान्ति का एक मन्त्र है। इस ताप को कौन मिटा सकता है?
दूसरे दिन गायत्री ने ज्ञानशंकर को तार दिया, ‘मैं आ ही रही हूँ और शाम की गाड़ी से मायाशंकर को साथ लेकर बनारस चली।
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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न ले सके थे, पर उनके प्रबन्ध कौशल ने परिषद् की सफलता में कोई बाधा न होने दी। सन्ध्या हो गयी थी। विद्यावती अन्दर बैठी हुई एक पुराना शाल रफू कर रही थी। राय साहब ने उसके सैर करने के लिए एक बहुत अच्छी सेजगाड़ी दे दी थी और कोचवान को ताकीद की थी कि जब विद्या का हुक्म मिले, तुरन्त सवारी तैयार करके उसके पास ले जाये; लेकिन इतने दिनों से विद्या एक दिन भी कहीं सैर करने न गयी। उनका मन घर के धन्धों से लगता था। उसे न थियेटर का शौक था, न सैर करने का, न गाने-बजाने का। इनकी अपेक्षा उसे भोजन बनाने या सीने-पिरोने में ज्यादा आनन्द मिलता था। इस एकान्त-सेवन के कारण उसका मुखकमल मुर्झाया रहता था। बहुधा सिर-पीड़ा से ग्रसित रहती थी। वह परम सुन्दर, कोमलांगी रमणी थी, पर उसमें अभिमान का लेश भी न था। माँगचोटी, आईने-कंघी से अरुचि थी। उसे आश्चर्य होता था कि गायत्री क्योंकर अपना अधिकांश समय बनाव सँवार में व्यतीत किया करती है। कमरे में अँधेरा हो रहा था; पर वह अपने काम में इतनी रत थी कि उसे बिजली के बटन दबाने का भी ध्यान न था। इतने में राय साहब उसके द्वार पर आ कर खड़े हो गये और बोले– ईश्वर से बड़ी भूल हो गयी कि उसने तुम्हें दर्जिन न बना दिया। अँधेरा हो गया, आँखों में सूझता नहीं, लेकिन तुम्हें अपने सुई-तागे से छुट्टी नहीं।
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