सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञानशंकर के जाने के बाद गायत्री को एक-एक क्षण काटना दुस्तर हो गया था। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं कितने गहरे पानी में आ गयी हूँ। जब तक ज्ञानशंकर के हाथों का सहारा था; उस गहराई का अन्दाज न होता था। उस सहारे के टूटते ही उसके पैर फिसलने लगे। वह सँभालना चाहती थी, पर तरंग का वेग सँभलने न देता था। अबकी ज्ञानशंकर पूरे साल भर के बाद गोरखपुर से निकले थे। वह नित्य उन्हें देखती थी, नित्य उनसे बातें करती थी और यद्यपि अवसर दिन में एक या दो बार से अधिक न मिलता था, पर उन्हें अपने समीप देखकर उसका हृदय-संतुष्ट रहता था। अब पिंजरे को खाली देखकर उसे पक्षी की बार-बार याद आती थी। वह सरल और गौरवशील थी; लेकिन उसके हृदय-स्थल में प्रेम का एक उबलता हुआ सोता छिपा हुआ था। वह अब तक अभिमान के मोटे कत्तल से दबा हुआ प्रवाह का कोई मार्ग न पाकर एक सुषुप्तावस्था में पड़ा हुआ था। यही सुषुप्ति उसका सतीत्व थी। पर भक्ति और अनुराग ने उस अभिमान के कत्तल को हटा दिया था और उबलता हुआ सोता प्रबल वेग से द्रवित हो रहा था। वह आत्मविस्मृति की दशा में मग्न हो गयी थी। वह अचेत-सी हो गयी थी। उसे लेशमात्र भी अनुमान न होता था कि वह भक्ति मुझे वासना की ओर खींचे लिए जाती है। वह इस प्रेम के नशे में कितनी ही ऐसी बातें करती थी। और कितनी ही बातें सुनती थी, जिन्हें सुन कर वह पहले कानों पर हाथ रख लेती थी, जो पहले मन में आतीं तो वह आत्मघात कर लेती; परन्तु अब वह गोपिका थी, वह सदनुराग की साक्षात् प्रतिमा थी। इस आध्यात्मिक उद्गार में वासना का लगाव कहाँ? ऐन्द्रिक तृष्णाओं का मिश्रण कहाँ? कृष्ण का नाम, कृष्ण की भक्ति, कृष्ण की रट ने उसके हृदय और आत्मा को पवित्र प्रेम से परिपूरित कर दिया था। गायत्री जब ज्ञानशंकर की ओर चंचल चितवनों से ताकती या उनके सतृष्ण लोचनों को अपनी मृदुल मुस्कान-सुधा से प्लावित करती तो वह अपने को गोपिका समझती जो कृष्ण से ठिठोली या रहस्य कर रही हो। उसकी इस चितवन और मुस्कान से सच्चा प्रेमानुराग झलकता था। ज्ञानशंकर अब उसे प्रेमोन्मत्त नेत्रों से देखते या उसकी निष्ठुरता और अकृपा का गिला करते, तो उसे इसमें भी उन्हीं पवित्र भावों की झलक दिखायी देती थी। इस प्रेम रहस्य और आमोद-विनोद का चस्का दिनोंदिन बढ़ता जाता था। उन प्रेम कल्पनाओं के बिना चित्त उचटा रहता था। गायत्री इस विकलता की दशा में कभी ज्ञानशंकर के दीवानखाने की ओर जाती, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बाग में, पर कहीं जी न लगता। वह गोपिकाओं की विरह-व्यथा की अपने वियोग-दुःख से तुलना करती। सूरदास के उन पदों को गाती जिनमें गोपिकाओं का विरह वर्णन किया गया है। उसके बाग में एक कदम का पेड़ था। उसकी छाँह में हरी घास पर लेटी हुई वह कभी गाती, कभी रोती, कभी-कभी उद्विग्न हो कर टहलने लगती। कभी सोचती, लखनऊ चलूँ, कभी ज्ञानशंकर को तार दे कर बुलाने का इरादा करती, कभी निश्चय करती, अब उन्हें कभी बाहर न जाने दूँगी। उनकी सूरत उसकी आँखों में फिरा करती, उनकी बातें कानों में गूँजा करतीं। कितना मनोहर स्वरूप है, कितनी रसीली बातें! साक्षात् कृष्णस्वरूप हैं! उसे आश्चर्य होता कि मैंने उन्हें अकेले क्यों जाने दिया? क्या मैं उनके साथ न जा सकती थी? वह ज्ञानशंकर को पत्र लिखती तो उनकी निर्दयता और हृदय-शून्यता का खूब रोना रोती। उनके पत्र आते तो बार-बार पढ़ती। उसके प्रेम कथन में अब संकोच या लज्जा बाधक न होती थी। गोपियों की विरह-प्रथा में उसे अब एक करुण वेदनामय आनन्द मिलता था। प्रेमसागर की दो-चार चौपाइयाँ भी न पढ़ने पाती कि आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती।
लेकिन जब ज्ञानशंकर बनारस चले गये और उनकी चिट्ठियों का आना बिलकुल बन्द हो गया, तब गायत्री को ऐसा अनुभव होने लगा मानों मैं इस संसार में हूँ ही नहीं। या कोई दूसरा निर्जन, नीरव, अचेतन संसार है। उसे ज्ञानशंकर के बनारस आने का समाचार ज्ञात न था। वह लखनऊ के पते से नित्य प्रति पत्र भेजती रही, लेकिन जब लगातार कई पत्रों का जवाब न आया तब उसे अपने ऊपर झुँझलाहट होने लगी। वह गोपियों की भाँति अपना ही तिरस्कार करती कि मैं क्यों ऐसे निर्दय निष्ठुर कठोर मनुष्य के पीछे अपनी जान खपा रही हूँ। क्या उनकी तरह मैं निष्ठुर नहीं बन सकती। वह मुझे भूल सकते हैं तो मैं उन्हें नहीं भूल सकती? किन्तु एक ही क्षण में उसका यह मान लुप्त हो जाता और वह फिर खोयी हुई-सी इधर-उधर फिरने लगती।
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