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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। प्रेमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डॉक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आया करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्त्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन में आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखने बिना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली या सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द ही महीनों में सारे नगर में उनका बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘गौरव’ उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटें किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने अपने एक लेख में यह आलोचना की, ‘काशी’ के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्त्तव्यपरायण डॉक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नहीं, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।’ डॉक्टर साहब को सुकीर्ति का स्वाद मिल गया। अब दीनों की सेवा से उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले संचित धन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि धन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नहीं हुए थे, पर कीर्ति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा को परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओं से धुले हुए फूलों के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामना-रहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा। तुच्छ मालूम होने लगती थी। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सन्तुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं, यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम औऱ श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं, तो फिर धन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यों इतनी बढ़ी हुई हैं, मैं डॉक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हूँ, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों मारता हूँ! इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था। लोभी, स्वार्थी निर्दय बना हुआ था और अब भी हूँ। लोगों को शंका होती थी कि कहीं यह रोग को बढ़ा न दें, इसलिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डॉक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगा।

एक दिन डॉक्टर साहब किसी मरीज को देखकर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषिशाला के सामने से निकले। दस बजे गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मंडल को वाणों से छेदती हुई जान पड़ती थीं। डॉक्टर साहब के जी में आया, देखता चलूँ क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोंपड़े के सामने वृक्ष के नीचे खड़े गेहूँ के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोंपड़े में आ गये और बोले धूप तेज है।

प्रियनाथ– लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए हैं मानों धूप है ही नहीं।

प्रेम– उन मजूरों को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।

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