सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी-सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जायें।
प्रेमशंकर– जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक विदा करेंगे?
प्रियनाथ– अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने के थोड़ी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है। यह भी तो आपका ही घर है।
प्रेमशंकर– आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा का कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कहीं और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया की संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत् पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।
प्रेमशंकर की नम्रता और सरलता डॉक्टर महोदय के हृदय को दिनोंदिन मोहित करती जाती थी। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निःस्पृह पुरुष का श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुद्रताएँ और मलितनाएँ आप ही आप मिटती जाती थीं। वह ज्योति दीप की भाँति उनके अन्तःकरण के अँधेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा रत्न को पा कर ऐसे मुग्ध थे, जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाये। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाये। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमे के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दें, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बातें सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा हैं। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सचरित्र समझ रहे हैं, जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भांति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन में घोर पाप किये हैं। यदि वह आपसे बयान करूँ तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वयं अपने कुकृत्यों का परदा बना हुआ हूँ, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढाँके हुए हूँ, लेकिन इस मुकदमें के संबंध में जनता ने मुझे कितना बदनाम कर रखा है, उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझ पर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्भव है हत्या निरूपण में मुझे भ्रम हुआ हो। और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हूँ कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है। जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।
प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा– भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराधी हूं। मैंने ही दूसरों के कहने में आकर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुःख और खेद है वह आप से कह नहीं सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दंड देंगे। पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पज्ञता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।
|