सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रिय– वे मजूर हैं, इसके आदी हैं।
प्रियनाथ– हमें इस कृत्रिम जीवन ने चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे ही आदमी होते और श्रम को बुरा न समझते।
प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गट्ठे, रखे आयीं और पूछने लगीं– सरकार, लकड़ी ले लो। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबों के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती पर पसली की हड्डियाँ निकली हुई थीं। ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई उस पर सूखे हुए पसीने की धारियाँ सी बन गयी थीं। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गट्ठे उतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमाश्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह में बैठ गईं और लड़के बिखरे हुए दाने चुन-चुन कर खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लड़कों को दे दिये। दोनों स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं– बाबू जी, नारायण तुम्हें सदा सुखी रखें। इन बेचारों ने अभी कलेवा नहीं किया है।
प्रेम– तुम्हारा घर कहाँ है?
एक बुढ़िया– सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।
प्रियनाथ– आपने गट्ठे देखे नहीं, सबों ने खूब कैची लगायी है।
प्रेमशंकर– दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?
वृद्धा– क्या करें मालिक, बीच कोई बस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले हैं, दुपहरी हो गयी, किसी पेड़ के नीचे पड़े रहेंगे, दिन ढलेगा तो साँझ तक घर पहुँचेंगे। करम का लिखा भोग है! जो कभी न करना था, वह मरते समय करना पड़ा!
प्रेम– आजकल गाँव का क्या हाल है?
वृद्ध– क्या हाल बतायें सरकार, ज़मींदार की निगाह टेढ़ी हो गयी, सारा गाँव बँध गया, कोई डामिल गया, कोई कैद हो गया। उनके बाल-बच्चे अब दाने-दाने को तरस रहे हैं। मेरे दो बेटे थे। दो हल की खेती होती थी। एक तो डामिल गया। दूसरे ही साल भर से कुछ टोह ही नहीं मिली। बैल थे, वे चारे बिना टूट गये। खेती-बाड़ी कौन करे? बहुएँ हैं, वे बाहर आ-जा नहीं सकतीं। मैं ही उपले बेंच कर ले जाती हूँ तो सबके मुँह में दाना पड़ता है। पोते थे, उन्हें भगवान् ने उन्हें पहले ही ले लिया। बुढ़ापे में यही भोगना लिखा था।
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