सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
वह चल गया तो ज्ञानशंकर ने कहा, इस लड़के का स्वभाव विचित्र है। समझ में ही नहीं आता। सवारियाँ सब तैयार है; पर पैदल ही जायगा। किसी को साथ भी नहीं लेता।
गायत्री– महरियाँ कहती हैं, अपना बिछावन तक किसी को नहीं छूने देते। वह बेचारियाँ इनका मुँह जोहा करती हैं, कि कोई काम करने को कहें, पर किसी से कुछ मतलब ही नहीं।
ज्ञान– इस उम्र में कभी-कभी यह सनक सवार हो जाया करती है। संसार का कुछ ज्ञान तो होता नहीं। पुस्तकों में जिन नियमों की सराहना की गयी है, उनके पालन करने को प्रस्तुत हो जाता है। लेकिन मुझे तो यह कुछ मन्दबुद्धि सा जान पड़ता है। इतना पढ़ा हुआ,पैसे की कदर ही नहीं जानता। अभी १०० रुपये दे दीजिये। तो शाम तक पास कौड़ी न रहेगी। न जाने कहाँ उड़ा देता है; किन्तु इसके साथ ही माँगता कभी नहीं। जब तक खुद न दीजिए, अपनी जबान से कभी न कहेगा।
गायत्री– मेरी समझ में तो यह पूर्व जन्म में कोई संन्यासी रहे होंगे।
ज्ञानशंकर ने आज ही गाड़ी से बनारस जाकर विद्या को साथ लेते हुए लखनऊ जाने का निश्चय किया। गायत्री बहुत कहने-सुनने पर भी राजी न हुई।
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राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग में व्यतीत होता है। योगाभ्यास भी करते जाते हैं। धन पर वह कभी लोलुप नहीं हुए और अब भी उसका आदर नहीं करते। जिस काम की धुन हुई उसे करके छोड़ते हैं। इसकी जरा भी चिन्ता नहीं करते कि रुपये कहाँ से आयेंगे। वह अब भी सलाहकारी सभा के मेम्बर हैं। इस बीच में दो बार चुनाव हुआ और दोनों बार वही बहुमत से चुने गये। यद्यपि किसान और मध्य श्रेणी के मनुष्यों को भी वोट देने का अधिकार मिल गया था, तथापि राय साहब के मुकाबले में कौन जीत सकता था? किसानों के वोट उनके और अन्य भाइयों के हाथों में थे और मध्य श्रेणी के लोगों को जातीय संस्थाओं में चन्दे देकर वशीभूत कर लेना कठिन न था।
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