सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
गायत्री– फिर लिख दीजिए कि बेगारों को जबरदस्ती पकड़वा लें। अगर न आये तो उन्हें गाँव से निकाल दीजिए। हम स्वयं दया– भाव से चाहे उनके साथ जो सलूक करें मगर यह कदापि नहीं हो सकता कि कोई असामी मेरे सामने हेकड़ी जतावे अपना रोब और भय बनाये रखना चाहिए।
ज्ञान– यह पत्र अमेलिया के बाजार से आया है। ठेकेदार लिखता है कि लोग गोले के भीतर गाड़ियाँ नहीं लाते। बाहर ही पेड़ों के नीचे अपना सौदा बेचते हैं। कहते हैं, हमारा जहाँ जी चाहेगा बैठेंगे। ऐसी दशा में ठीका रद्द कर दिया जाये अन्यथा मुझे बड़ी हानि होगी।
गायत्री– बाजार के बाहर भी तो मेरी ही जमीन है, वहाँ किसी को दूकान रखने का क्या अधिकार?
ज्ञान– कुछ नहीं, बदमाशी है। बाजारों में रुपये पीछे, एक पैसा बयाई देनी पड़ती है, तौल ठीक-ठीक होती है, कुछ धर्मार्थ कटौती देनी पड़ती है, बाहर मनमाना राज है!
गायत्री– यह क्या बात है कि जो काम जनता के सुभीते और आराम के लिए किये जाते हैं, उनका भी लोग विरोध करते हैं।
ज्ञान– कुछ नहीं, यह मानव प्रकृति है। मनुष्य को स्वभावतः दबाव से, रोकथाम से, चाहे वह उसी के उपकार के लिए क्यों न हो, चिढ़ ही होती है। किसान अपने मूर्ख पुरोहित के पैर धो-धो पियेगा, लेकिन कारिन्दा को, चाहे वह विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो, सलाम करने में भी उसे संकोच होता है। यों चाहे वह दिन भर धूप में खड़ा रहे, लेकिन कारिन्दा या चपरासी को देख कर चारपाई से उठना उसे असह्य होता है। वह आठों पहर अपनी दीनता और विवशता के भार से दबा रहना नहीं चाहता। अपनी खुशी से नीम की पत्तियाँ चबायेगा, लेकिन जबरदस्ती दूध और शर्बत भी न पियेगा। यह जानते हुए भी हम उन पर सख्ती करने के लिए बाध्य हैं।
इतने में मायाशंकर एक पीताम्बर ओढ़े हुए ऊपर से उतरा। अभी उसकी उम्र चौदह वर्ष से अधिक न थी, किंतु मुख पर एक विलक्षण गम्भीरता और विचारशीलता झलक रही थी। जो इस अवस्था में बहुत कम देखने में आती है। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहाँ चले मुन्नू?
माया ने तीव्र नेत्रों से देखते हुए कहा, घाट की तरफ सन्ध्या करने जाता हूँ।
ज्ञान– आज सर्दी बहुत है। यहीं बाग में क्यों नहीं कर लेते?
माया– वहाँ एकान्त में चित्त खूब एकाग्र हो जाता है।
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