सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञान– राय साहब को कोई और चिन्ता तो है नहीं, एक स्वाँग रचते रहते हैं। कर्ज बढ़ता जाता है, रियासत बोझ से दबी जाती है, पर वह अपनी धुन में किसी की कब सुनते हैं! मेरा अनुमान है कि इस समय उन पर ३।। लाख देना है।
गायत्री– इतना धन-कृष्ण भगवान् की सेवा में खर्च करते तो परलोक बन जाता! चिट्ठियाँ तो खोलिए, जरूर कोई पत्र होगा।
ज्ञान– हाँ देखिए, यह लिफाफा उन्हीं का मालूम होता है। हाँ, उन्हीं का है! मुझे बुला रहे हैं और आपको भी बुला रहे हैं।
गायत्री– मैं जा चुकी। जब वह यहाँ आने में अपनी हेटी समझते हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि उनके जलसों-तमाशों में जाऊँ? हाँ, विद्या को चाहे पहुँचा दीजिए; मगर शर्त यह है कि आप दो दिन से ज्यादा वहाँ न ठहरें।
ज्ञान– इसके विषय में सोच कर निश्चय करूँगा। यह दो पत्र बरहाल और आम-गाँव के कारिन्दों के हैं। दोनों लिखते हैं। कि असामी सभा का चन्दा देने से इन्कार करते हैं।
गायत्री की त्योरियाँ बदल गयीं। प्रेम की देवी क्रोध की मूर्ति बन गयी। बोली, क्या देहातों, में भी वह हवा फैलने लगी? कारिन्दों को लिख दीजिए कि इन पाजियों के घर में आग लगवा दें और उन्हें कोड़ों से पिटवायें। उनका यह दिल कि मेरी आज्ञा का निरादर करें! देवकीनन्दन, तुम इन नर-पिशाचों को क्षमा करो! आप आज ही वहाँ आदमी रवाना करें! मैं यह अवज्ञा नहीं सह सकती। यह सब-के-सब कृतघ्न हैं। किसी दूसरे राज में होते तो आटे-दाल का भाव खुलता। मैं उनके साथ उतनी रिआयत करती हूँ, उनकी मदद के लिए तैयार रहती हूँ, इनके लिए नुकसान उठाती हूँ और उसका यह फल!
ज्ञान– यह मुंशी रामसनेही का पत्र है। लिखते हैं, ठाकुरद्वारे का काम तीन दिन से बन्द है। बेगारों को कितनी ताकीद की जाती है, मगर काम पर नहीं आते।
गायत्री– उन्हें मजूरी दी जाती है न?
ज्ञान– जी हाँ, लेकिन जमींदारी की दर से दी जाती है। जमींदारी शरह दो आने है, आम शरह छह आने है।
गायत्री– आप उचित समझें तो रामसनेही को लिख दीजिए कि चार आने के हिसाब से मजूरी दी जाये।
ज्ञान– लिख तो दूँ, वास्तव में दो आने में एक पेट भी नहीं भरता, लेकिन इन मूर्ख, उजड्ड गँवारों पर दया भी की जाय तो वह समझते हैं कि दब गये। कल को छह आने माँगने लगेंगे और फिर बात भी न सुनेंगे।
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