लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है

४०

जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विरोधी तथा सहायक शक्तियों की बड़ी योग्यता से निरूपण किया गया था। संस्था की वर्तमान दशा और भावी लक्ष्य की बड़ी मार्मिक आलोचना की गयी थी। पत्रों में उस वक्तृता को पढ़ कर लोग चकित रह जाते थे और जिन्होंने उसे अपने कानों से सुना वे उसका स्वर्गीय आनन्द कभी न भूलेंगे। क्या वाक्य-शैली थी, कितनी सरल, कितनी मधुर, कितनी प्रभावशाली, कितनी भावमयी! वक्तृता क्या थी– एक मनोहर गान था!

तीन दिन बीत चुके थे। ज्ञानशंकर अपने भव्य-भवन में समाचार-पत्रों का एक दफ्तर सामने रखे बैठे हुए थे। आजकल उनका यही काम था कि पत्रों में जहाँ कहीं इस जलसे की आलोचना हुई तुरन्त काट कर रख लेते। गायत्री अब ज्ञानशंकर को देवतुल्य समझती थी। उन्हीं की बदौलत आज समस्त देश में उसकी सुकीर्ति की धूम मची हुई थी। उसके इस अतुल उपकार का एक ही उपहार था और वह प्रेमपूर्ण श्रद्धा थी।

सन्ध्या हो गयी थी कि अकस्मात् ज्ञानशंकर पत्रों की एक पोटली लिये हुए अन्दर गये और गायत्री से बोले, देखिए, रायसाहब ने यह नया शिगूफा छोड़ा।

गायत्री ने भौंहें चढ़ाकर कहा, मेरे सामने उनका नाम न लीजिए। मैंने उनकी कितनी चिरौरी की थी एक दिन के लिए जलसे में अवश्य आइए, पर उन्होंने जरा भी परवाह न की। पत्र का उत्तर तक न दिया। बाप हैं तो क्या, मैं उनके हाथों भी अपना अपमान नहीं सह सकती।

ज्ञान– मैंने तो समझा था, यह उनकी लापरवाही है, लेकिन इस पत्र से विदित होता है कि आजकल वह एक दूसरी ही धुन में हैं। शायद इसी कारण अवकाश न मिला हो।

गायत्री– क्या बात है, किसी अँगरेज से लड़ तो नहीं बैठे।

ज्ञान– नहीं, आजकल एक संगीत-सभा की तैयारी कर हैं।

गायत्री– उनके यहाँ तो बारहों मास संगीत-सभा होती रहती है।

ज्ञान नहीं, यह उत्सव बड़ी धूम-धाम से होगा। देश के समस्त गवैयों के नाम निमंत्रण-पत्र भेजे गये हैं। यूरोप से भी कोई जगद्विख्यात गायनाचार्य बुलाये जा रहे हैं। रईसों और अधिकारियों को दावत दी गयी है। एक सप्ताह तक जलसा होगा। यहाँ के संगीत-शास्त्र और पद्धति में सुधार करना उनका उदेश्य है।

गायत्री– हमारा संगीत-शास्त्र ऋषियों का रचा हुआ है। उसमें क्या कोई सुधार करेगा? इस भैरव और ध्रुपद के शब्द यशोदानन्दन की वंशी से निकलते थे, पहले कोई गा तो ले, सुधारना तो छोटा मुँह बड़ी बात है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book