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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


फिर हारमोनियम बजा, तबले पर थाप पड़ी, करताल ने झंकार ली और ईजाद हुसेन की करुण-रस-पूर्ण गजल शुरू हुई। श्रोताओं के कलेजे मसोस उठे। चन्दे की अपील हुई तो रानी गायत्री की ओर से १००० रुपये की सूचना हुई, भक्त ज्ञानशंकर ने यतीमखाने के लिए एक गाय भेंट की, चारों तरफ से लोग चन्दा देने को लपके। इधर तो चन्दे की सूची चक्कर लगा रही थी, उधर इर्शाद हुसेन ने अंजुमन के पम्फलेट और तमगे बेचने शुरू किए। तमगे अतीव सुन्दर बने हुए थे। लोगों ने शौक से हाथों-हाथ लिये। एक क्षण में हजारों वक्षस्थलों पर यह तमगे चमकने लगे। हृदयों पर दोनों तरफ से इत्तहाद की छाप पड़ी गयी। कुल चन्दे का योग ५००० रुपये हुआ। ईजाद हुसेन का चेहरा फूल की तरह खिल उठा। उन्होंने लोगों को धन्यवाद देते हुए एक गजल गायी और आज की कार्यवाही समाप्त हुई रात के दस बजे थे।

जब ईजाद हुसेन भोजन करके लेटे और खमीरे का रस-पान करने लगे तब उनके सुपुत्र ने पूछा, इतनी उम्मीद तो आपको भी न थी।

ईजाद– हर्गिज नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा १००० रुपये का अन्दाज़ किया था, मगर आज मालूम हुआ कि ये सब कितने अहमक होते हैं। इसी अपील पर किसी इस्लामी जलसे में मुश्किल से १०० रुपये मिलते थे। इन बछिया के ताऊओं की खूब तारीफ कीजिए। हर्जोमलीह की हद तक हो तो मुजायका नहीं, फिर इनसे जितना चाहें वसूल कर लीजिए।

इर्शाद– आपकी तकरीर लाजवाब थी।

ईजाद– उसी पर जो जिन्दगी का दारोमदार है न किसी के नौकर, न गुलाम। बस, दुनिया में कामयाबी का नुस्खा है तो वह शतरंजबाजी है। आदमी जरा लस्सान (वाक्-चतुर) हो, जरा मर्दुमशनास हो और जरा गिरहबाज हो, बस उसकी चाँदी है। दौलत उसके घर की लौंडी है।

इर्शाद– सच फरमाइएगा अब्बा जान, क्या आपका कभी यह खयाल था कि यह सब दुनियासाजी है?

ईजाद– क्या मुझे मामूली आदमियों से भी गया-गुजरा समझते हो? यह दगाबाजी है, पर करूँ क्या? औलाद और खानदान की मुहब्बत अपनी नजात की फिकर से ज्यादा है।  

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