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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


‘भाइयों, मजहब दिल की तस्कीन के लिए है, दुनिया कमाने के लिए नहीं, मुल्की हकूम हासिल करने के लिए नहीं! वह आदमी जो मजहब की आड़ में दौलत और इज्जत हासिल करना चाहता है, अगर हिन्दू है जो मालिच्छ है, मुसलमान है तो काफिर है, हाँ काफिर है, मजदूर है, रूसियाह है।’’

करतल ध्वनि से पंडाल काँप उठा।

‘हम सत्तर पुश्तों से इसी सरजमीन का दाना खा रहे हैं, इसी सरजमीन के आब व गिल (पानी और मिट्टी) से हमारी शिरशिरी हुई है। तुफ है उस मुसलमान पर जो हिजाज और इराक को अपना वतन कहता है!

फिर तालियाँ बजीं। एक घंटे तक व्याख्यान हुआ। सैयाद ने सारी पर मानो मोहिनी डाल दी। उनकी गौरवयुक्त विनम्रता, उनकी निर्भीक यथार्थवादिता, उनकी स्वदेशाभिमान, उस पर उनके शब्द-प्रवाह, भावोत्कर्ष और राष्ट्रीय गाने ने लोगों को उन्मत्त कर दिया। हृदयों में जागृति की तरंगे उठने लगीं। कोई सोचता था, न हुए मेरे पास एक लाख रुपये, नहीं तो इसी दम लुटा देता। कोई मन में कहता था, बाल-बच्चों की चिंता न होती तो गले में झोली लटका कर जाति के लिए भिक्षा माँगता।

इस तरह जातीय भाव को उभारकर भूमि को पोली बना कर सैयद साहब मतलब पर आये, बीज डालना शुरू किया।

‘‘दोस्तो, अब मजहबपरवरी का जमाना नहीं रहा। पुरानी बातों को भूल जाइए। एक जमाना था कि आरियों ने यहाँ के असली बाशिन्दों पर सदियों तक हुकूमत की, आज वही शूद्र आरियों में घुले-मिले हुए हैं। दुश्मनों को अपने सलूक से दोस्त बना लेना आपके बुजुर्गों का जौहर था। वह जौहर आप में मौजूद है। आप बारहा हमसे गले मिलने के लिए बढ़े, लेकिन हम पिदरम सुलताबूद के जोश में हमेशा आप से दूर भागते रहे। लेकिन दोस्तो, हमारी बदगुमानी से नाराज न हो, तुम जिन्दा कौम हो। तुम्हारे दिल में दर्द है, हिम्मत है, फैयाजी है। हमारी तंगदिली को भूल जाइए। उसी बेगाना कौम का एक फर्द हकीर आज आपकी खिदमत में इत्तहाद का पैगाम लेकर हाजिर हुआ है, उसकी अर्ज कबूल कीजिए। यह फकीर इत्तहाद का सौदाई है, इत्तहाद का दीवाना है, उसका हौसला बढ़ाइए। इत्तहाद का यह नन्हा सा मुर्झाया हुआ पौधा आपकी तरफ भूखी-प्यासी नजरों से ताक रहा है। उसे अपने दरियादिली के उबलते हुए चश्मों से सैराब कर दीजिए। तब आप देखेंगे कि यह पौधा कितनी जल्द तनावर दरख्त हो जाता है और उसके मीठे फलों से कितनों की जबानें तर होती हैं। हमारे दिल में बड़े-बड़े हौसले हैं। बड़े-बड़े मनसूबे हैं। हम इत्तहाद की सदा से इस पाक जमीन के एक-एक गोशे को भर देना चाहते हैं। अब तक जो कुछ किया है आप ही ने किया है, आइन्दा जो कुछ करेंगे आप ही करेंगे। चन्दे की फिहरिस्त देखिए, वह आपके ही नामों से भरी हुई है और हक पूछिए तो आप ही उसके बानी हैं। रानी गायत्री कुँवर साहब की सखावत की एक वक्त सारी दुनिया में शोहरत है। भगत ज्ञानशंकर की कौमपरस्ती क्या पोशीदा है? वजीर ऐसा, बादशाह ऐसा! ऐसी पाक रूहें जिस कौम में हों वह खुशनसीब है। आज मैंने इस शहर की पाक जमीन पर कदम रखा तो बाशिन्दों के एखलाक और मुरौवत, मेहमानबाजी और खातिरदारी ने मुझे हैरत में डाल दिया। तहकीक करने से मालूम हुआ कि यह इसी मजहबी जोश की बरकत है, यह प्रेम के औतार सिरी किरिश्नजी की भगती का असर है जिसने लोगों को इन्सानियत के दर्जे से उठा कर फरिश्तों का हमसफर बना दिया है। हजरात, मैं अर्ज नहीं कर सकता कि मेरे दिल में सिरी किरिश्नजी की कितनी इज्जत है। इससे चाहे मेरी मुसलमानी पर ताने ही क्यों न दिए जायँ, पर मैं बेखौफ कहता हूँ कि वह रूहे पाक उलूहियत (ईश्वरत्व) के उस दर्जे पर पहुँची हुई थी जहाँ तक किसी नवी या पैगम्बर को पहुँचना नसीब न हुआ। आज इस सभा में सच्चे दिल से अंजुमन इत्तहाद को उसी रूहेपाक के नाम मानून (समर्पित) करता हूँ। मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि उनके भगतों के सामने मेरा सवाल खाली न जायेगा! इत्तहादी यतीमखाने के बच्चे ओर बच्चियाँ आप ही की तरफ बेकस निगाहों से देख रही हैं। यह कौमी भिखारी आपके दरवाजे पर खड़ा दोआएँ दे रहा है। इस लम्बी दाढ़ी पर निगाह डालिए, इन सुफेद बालों की लाज रखिए।’

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