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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


पंडित जी ने अपना रंग जमते न देखा तो अपनी वक्तृता समाप्त कर दी और जगह पर आ बैठे। श्रोताओं ने समझा अब इत्तहादियों के राग सुनने में आयेंगे। सबने कुर्सियाँ आगे खिसकायीं और सावधान हो बैठे; किन्तु उपदेशक-समाज इसे कब पसन्द कर सकता था कि कोई मुसलमान उनसे बाजी ले जा? एक संन्यासी महात्मा ने चट अपना व्याख्यान न शुरू कर दिया। यह महाशय वेदान्त के पंडित और योगाभ्यासी थे। संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। वह सदैव संस्कृत में ही बोलते थे। उनके विषय में किंवदन्ती थी कि संस्कृत ही उनकी मातृ-भाषा है। उनकी वक्तृता को लोग उसी शौक से सुनते थे, जैसे चंडूल का गाना सुनते हैं। किसी की भी समझ में कुछ न आता था, पर उनकी विद्वता और वाक्य प्रवाह का रोब लोगों पर छा जाता था। वह एक विचित्र जीव ही समझे जाते थे और यही उनकी बहुप्रियता का मन्त्र था। श्रोतागण कितने ही ऊबे हुए हों, उनके मंच पर आते ही उठने वाले बैठ जाते थे, जाने वाले थम जाते थे। महफिल जम जाती थी। इसी घमंड पर इस वक्त उन्होंने अपना भाषण आरम्भ किया पर आज उनका जादू भी न चला। इत्तहादियों ने उनका रंग भी फीका कर दिया? उन्होंने संस्कृत की झड़ी लगा दी, खूब तड़पे, खूब गरजे, पर यह भादों की नहीं, चैत की वर्षा थी। अन्त में वह भी थक कर बैठ रहे और अब किसी अन्य उपदेशक को खड़े होने का साहस न हुआ। इत्तहादियों ने मैदान मार लिया।

ज्ञानशंकर ने खड़े होकर कहा, अब इत्तहाद संस्था के संचालक सैयद ईजाद हुसेन अपनी अमृत वाणी सुनायेंगे। आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।

सभा भवन में सन्नाटा छा गया। लोग सँभल बैठे। ईजाद हुसेन ने हारमोनियम उठा कर मेज पर रखा, साजिन्दों ने साज निकाले, अनाथ बालकवृन्द वृत्ताकार बैठे। सैयद इर्शाद हुसेन ने इत्तहाद सभा की नियमावली का पुलिन्दा निकाला। एक क्षण में ईश-वन्दना के मधुर स्वर पंडाल में गूँजने लगे। बालकों की ध्वनि में एक खास लोच होता है। उनका परस्पर स्वर में स्वर मिला कर गाना उस पर साजों का मेल, एक समाँ छा गया– सारी सभा मुग्ध हो गयी।

राग बन्द हो गये और सैयद ईजाद हुसेन ने बोलना शुरू किया–  प्यारे दोस्तो, आपको यह हैरत होगी कि हंसों में यह कौवा क्योंकर आ घुसा, औलिया की जमघट में यह भाँड कैसे पहुँचा?

यह मेरी तकदीर की खूबी है। उलमा फरमाते हैं, जिस्म हाजिम (अनित्य) है, रूह कदीम (नित्य) है। मेरा तर्जुबा बिलकुल बरअक्स (उल्टा) है। मेरे जाहिर में कोई तबदीली नहीं हुई। नाम वही है, लम्बी दाढ़ी वही है, लिबास-पोशाक वही है, पर मेरे रूह की काया पलट गयी। जाहिर से मुगालते में न आइए, दिल में बैठ कर देखिए, वहाँ मोटे गरूफ में लिखा हुआ है : ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्ताँ हमारा।’

लड़कों और साजिन्दों ने इकबाल की गजल अलापनी शुरू की। सभा लोट-पोट हो गयी। लोगों की आँखों से गौरव की किरणें-सी निकलने लगीं, कोई मूछों पर ताव देने लगा, किसी ने बेबसी की लम्बी साँस खींची, किसी ने अपनी भुजाओं पर निगाह डाली और कितने ही सहृदय सज्जनों की आँखें भर आयीं। विशेष करके इस मिसरे पर– ‘हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा।’ तो सारी मजलिस तड़प उठी, लोगों ने कलेजे थाम लिये।, ‘वन्देमातरम्’ से भवन गूँज उठा। गाना बन्द होते ही फिर व्याख्यान शुरू हुआ–

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