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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


राय साहब इतने दिनों तक मेम्बर बने रहे, पर उन्हें इस बात का अभिमान था कि मैंने अपनी ओर से कौंसिल में कभी कोई प्रस्ताव न किया। वह कहते, मुझे खुशामदी टट्टू कहने में अगर किसी को आनन्द मिलता है तो कहे, मुझे देश और जाति का द्रोही कहने से अगर किसी का पेट भरता है तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, पर मैं अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता। अगर रस्सी तुड़ा कर मैं जंगल में अबाध्य फिर सकूँ तो मैं आज ही खूँटा उखाड़ फेंकूँ। लेकिन जब मैं जानता हूँ कि रस्सी तुड़ाने पर भी मैं बाड़े से बाहर नहीं जा सकता, बल्कि ऊपर से और डंडे पड़ेंगे तो फिर खूँटे पर चुपचाप खड़ा क्यों न रहूँ? और कुछ नहीं तो मालिक की कृपादृष्टि तो रहेगी। जब राज-सत्ता अधिकारियों के हाथों में है, हमारे असहयोग और असम्मति से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता तो इसकी क्या जरूरत है कि हम व्यर्थ अधिकारियों पर टीका-टिप्पणी करने बैठें और उनकी आँखों में खटकें? हम काठ के पुतले हैं, तमाशे दिखाने के लिए खड़े किये गये हैं। इसलिए हमें डोरी के इशारे पर नाचना चाहिए। यह हमारी खामख़ियाली है कि हम अपने को राष्ट्र का प्रतिनिधि समझते हैं। जाति हम जैसे को, जिसका अस्तित्व ही उसके रक्त पर अवलम्बित है, कभी अपना प्रतिनिधि न बनायेगी। जिस दिन जाति में अपना हानि-लाभ समझने की शक्ति होगी, हम और आप खेतों में कुदाली चलाते नजर आयेंगे। हमारा प्रतिनिधित्व सम्पूर्णतः हमारी स्वार्थपरता और सम्मान लिप्सा पर निर्भर है। हम जाति के हितैशी नहीं हैं, हम उसे केवल स्वार्थ-सिद्धि का यन्त्र बनाये हुए हैं। हम लोग अपने वेतन की तुलना अँग्रेजों से करते हैं। क्यों? हमें तो सोचना चाहिए कि ये रुपये हमारी मुट्ठी में आ कर यदि जाति की उन्नति और उपकार में खर्च हों तो अच्छा है। अँग्रेज अगर दोनों हाथों से धन बटोरते हैं तो बटोरने दीजिए। वे इसी उद्देश्य से इस देश में आये हैं। उन्हें हमारे जाति-प्रेम का दावा नहीं है। हम तो जाति-भक्ति की हाँक लगाते हुए भी देश का गला घोंट देते हैं। हम अपने जातीय व्यवसाय के अधःपतन का रोना रोते हैं। मैं कहता हूँ आपके हाथों यह दशा और भी असाध्य हो जायगी। हम अगणित मिलें खोलेंगे, बड़ी संख्या में कारखाने कायम करेंगे, परिणाम क्या होगा? हमारे देहात वीरान हो जायेंगे, हमारे कृषक कारखानों में मजदूर बन जायेंगे, राष्ट्र का सत्यानाश हो जायेगा। आप इसी को जातीय उन्नति चरम सीमा समझते हैं। मेरी समझ में यह जातीयता का घोर अधःपतन है। जाति की जो कुछ दुर्गति हुई हमारे हाथों हुई है। हम ज़मींदार हैं, साहूकार हैं, वकील हैं, सौदागर हैं, डॉक्टर हैं, पदाधिकारी हैं, इनमें कौन जाति की सच्ची वकालत करने का दावा कर सकता है? आप जाति के साथ बड़ी भलाई करते हैं। तो कौंसिल में अनिवार्य शिक्षा प्रस्ताव पेश करा देते हैं। अगर आप जाति के सच्चे नेता होते तो वह निरकुंशता कभी न करते। कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग भी नहीं चाहता। हममें तो कितने ही महोदयों ने बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं। पर उस शिक्षा ने हममें सिवा विलास-लालसा और सम्मान प्रेम, स्वार्थ-सिद्धि और अहम्मन्यता के और कौन सा सुधार कर दिया। हम अपने घमंड में अपने को जाति का अत्यावश्यक अंग समझते हैं, पर वस्तुतः हम कीट-पतंग से भी गये-बीते हैं। जाति-सेवा करने के लिए दो-हजार मासिक, मोटर, बिजली, पंखे, फिटन, नौकर या चाकर की क्या जरूरत है? आप रुखी रोटियाँ खा कर जाति की सेवा इससे कहीं उत्तम रीति से कर सकते हैं। आप कहेंगे– वाह, हमने परिश्रम से विद्योपार्जन किया है; क्या इसीलिए? तो जब आपने अपने कायिक सुखभोग के लिए इतना अध्यवसाय किया है तब जाति पर इसका क्या एहसान? आप किस मुँह से जाति के नेतृत्व का दावा करते हैं? आप मिलें खोलते हैं, तो समझते हैं हमने जाति की बड़ी सेवा की; पर यथार्थ में आपने दस-बीस आदमियों को बनवास दे दिया। आपने उनके नैतिक और समाजाकि पतन का सामान पैदा कर दिया है। हाँ, आपने और आपके साझेदारों ने ४५ रुपये प्रति सैकड़े लाभ अवश्य उठाया। तो भई, जब तक यह धींगा-धींगी चलती है चलने दो। न तुम मुझे बुरा कहो, न मैं तुम्हें बुरा कहूँ। हम और आप, नरम और गरम दोनों ही जाति के शत्रु हैं। अन्तर यह है कि मैं अपने को शत्रु समझता हूँ और आप अहंकार के मद में अपने को उसका मित्र समझते हैं।

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