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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है

३८

सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ याद करने लगते तो कानों पड़ी आवाज न सुनायी देती। मालूम होता, बाजार लगा हुआ हो। इस हरबोंग में लौंडे गालियाँ बकते, एक-दूसरे को मुँह चिढ़ाते, चुटकियाँ काटते। यदि कोई लड़का शिकायत करता तो सब-के-सब मिल कर ऐसा कोलाहल मचाते कि उसकी आवाज ही दब जाती थी। बरामदे के मध्य में मौलवी साहब का तख्त था। उस पर एक दढ़ियल मौलवी लुंगी बाँधे, एक मैला-कुचैला तकिया लगाए अपना मदरिया पिया करते और इस कलरव में भी शान्तिपूर्वक झपकियाँ लेते रहते थे। उन्हें हुक्का पीने का रोग था। एक किनारे अँगीठी में उपले सुलगा करते थे और चिमटा पड़ा रहता था। चिलम भरना बालकों के मनोरंजन की मुख्य सामग्री थी। उनकी शिक्षोन्नति चाहे बहुत प्रशंसा के योग्य न हो, लेकिन गुरु-सेवा में सब के सब निपुण थे। यही सैयद ईजाद हुसेन का ‘‘इत्तहादी यतीमखाना’’ था।

किन्तु बरामदे के ऊपरवाले कमरे में कुछ और ही दृश्य था। साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, कालीन और मसनद भी करीने से सजे हुए थे। पानदान, खसदान, उगालदान आदि मौके से रखे हुए थे। एक कोने में नमाज पढ़ने की दरी बिछी हुई थी। तस्वीह खूँटी पर लटक रही थी। छत में झालरदार छतगीर थी, जिसकी शोभा रंगीन हाँडियों से और भी बढ़ गयी थी। दीवारें बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अलंकृत थीं।

प्रातःकाल था। मिर्जा साहब मसनद लगाये हारमोनियन बजा रहे थे। उनके सम्मुख तीन छोटी-छोटी सुन्दर बालिकाएँ बैठी हुई डॉक्टर इकबाल की सुविख्यात रचना ‘शिवाजी’ के शे’रों को मधुर स्वर में गा रही थीं। ईजाद हुसेन स्वयं उनके साथ गा कर ताल-स्वर बताते जाते यह ‘‘इत्तहादी यतीमखाने’’ की लड़कियाँ बतायी जाती थीं, किन्तु वास्तव में एक, उन्हीं की पुत्री और दो भांजियाँ थीं। ‘‘इत्तहाद’ के प्रचार में यह त्रिमूर्ति लोगों को वशीभूत कर लेती थी। एक घंटे के अभ्यास के बाद मिर्जा साहब ने प्रसन्न हो सगर्व नेत्रों से लड़कियों को देखा और उन्हें छुट्टी दी। इसके बाद लड़कों की बारी आयी। किन्तु यह मकतबवाले, दुर्बल वस्त्रहीन बालक न थे। थे तो चार ही, पर चारों स्फूर्ति और सजीवता की मूर्ति थे। सुन्दर, सुकुमार सुवस्त्रित, चहकते हुए घर में से आए और फर्श पर बैठ गये मिर्जा साहब ने फिर हारमोनियम के स्वर मिलाये और लड़कों ने हक्कानी में एक ग़ज़ल गानी शुरू की, जो स्वयं मिर्जा साहब की सुरचना थी। इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक सुन्दर वाटिका से उपमा दी गई थी और जनता से अत्यन्त करुण और प्रभावयुक्त शब्दों में प्रेरणा की गयी थी कि वह इस बाग को अपनाये, उसकी रमणीकता का आनन्द उठायें और द्वेष तथ वैमनस्य की कंटकमय झाड़िया में न उलझें। लड़कों के सुकोमल, ललित स्वरों में यह गजब ढाती थी। भावों को व्यक्त करने में भी यह बहुत चतुर थे। यह ‘इत्तहादी यतीमखाने’ के लड़के बताये जाते थे, किन्तु वास्तव में यह मिर्जा साहब की दोनों बहनों के पुत्र थे।

मिर्जा साहब अभी गानाभ्यास में मग्न थे कि इतने में एक आदमी नीचे से आया और सामने खड़ा हो कर बोला, लाला गोपालदास ने भेजा है और कहा है आज हिसाब चुकता न हो तो कल नालिश कर दी जायगी। कपड़े का व्यवहार महीने-दो-महीने का है और आपको कपड़े लिये तीन साल से ज्यादा हो गये।

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