सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
यह कह कर डॉक्टर साहब मोटर पर आ बैठे और एक क्षण में घर पहुँच गये। एक बजे गाड़ी जाती थी। सफर का सामान होने लगा। दो चमड़े के सन्दूक, एक हैण्ड बेग, हैट रखने का सन्दूक, ऑफिस बक्स, भोजन सामग्रियों का सन्दूक आदि सभी सामान बग्घी पर लादा गया। प्रत्येक वस्तु पर डॉक्टर साहब का नाम लिखा हुआ था। समय बहुत कम था, डॉक्टर साहब घर में न गये। मोटर पर बैठना ही चाहते थे कि महरी ने आ कर कहा, हुजूर, जरा अन्दर चलें, बेगम साहिबा बुला रही हैं। मुनीरा को कई दस्त और कै आये हैं।
डॉक्टर साहब– तो जरा कपूर का अर्क क्यों नहीं पिला देती? खाने में कोई बदपरहेजी हुई होगी। चीखने-चिल्लाने की क्या जरूरत है?
महरी– हुजूर, दवा तो पिलायी है। जरा आप चल कर देख लें! बेगम साहिबा डॉक्टर बुलाने को कहती हैं।
इर्फान अली झल्लाये हुए अन्दर गये और बेगम से बोले, तुमने क्या जरा-सी बात का तूफान मचा रखा है?
बेगम– मुनीरा की हालत अच्छी नहीं मालूम होती। जरा चल कर देखो तो। उसके हाथ-पाँव अकड़े जाते हैं मुझे तो खौफ होता है, कहीं कालरा न हो।
इर्फान– यह सब तुम्हारा बहम है। सिर्फ खाने-पीने की बेएहतियाती है और कुछ नहीं। अर्क-काफूर दो-दो घंटे बाद पिलाती रहो। शाम तक सारी शिकायत दूर हो जायेगी। घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं इस ट्रेन से जरा गोरखपुर जा रहा हूँ। तीन-चार दिन में वापस आऊँगा। रोजाना खैरियत की इत्तला देती रहना। मैं रानी गायत्री के बँगले में ठहरूँगा।
बेगम ने उन्हें तिरस्कार भाव से देखकर कहा, लड़की की यह हालत है और आप इसे छोड़ चले जाते हैं। खुदा न करे उसकी हालत ज्यादा खराब हुई तो?
इर्फान– तो मैं रह कर क्या करूँगा? उसकी तीमारदारी तो मुझसे होगी ही नहीं और न बीमारी से मेरी दोस्ती है कि मेरे साथ रियायत करे।
बेगम– लड़की की जान को खुदा के हवाले करते हो, लेकिन रुपये खुदा के हवाले नहीं किये जाते! लाहौल बिलाकूबत आदमी में इन्सानियत न हो, औलाद की मुहब्बत तो हो! दौलत की हवस औलाद के लिए होती है। जब औलाद ही न रही, तो रुपयों का क्या अलाव लगेगा?
इर्फान– तुम अहमक हो, तुमसे कौन सिर-मगज करे?
यह कह कर वह बाहर चले आये, मोटर पर बैठे और स्टेशन की तरफ चल पड़े।
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