सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
डॉक्टर– कोई मुजायका नहीं, करने दीजिए। मैं उसका जवाब पहले ही तैयार कर चुका हूँ।
प्रेमशंकर उनके साथ सब-जज के इजलास तक गये। डॉक्टर साहब लगभग एक घंटे तक दफ्तरवालों से बातें करते रहे। अन्त में निकले तो बड़े संकोच भाव से बोले आप को यहाँ खड़े-खड़े बेहद तकलीफ हुई, मुआफ फरमाइएगा। मुझे यह कहते हुए आपसे बहुत नादिम होना पड़ता है कि मैं तीन-चार दिन इस मुकदमे की पैरवी न कर सकूँगा।
प्रेम– यह तो आपने बुरी खबर सुनायी। आप खुद अन्दाज कर सकते हैं कि ऐसे नाजुक मौके पर आपका न रहना कितना जुल्म है।
डॉक्टर– मजबूर हूँ, आपके भाई साहब ने तार से गोरखपुर बुलाया है।
प्रेम– इस खबर से मेरी तो रूह ही फना हो गयी। आप इन बेचारे किसानों को मझधार में छोड़े देते हैं। ख्याल फरमाइए इनकी क्या हालत होगी? यहाँ इतने तंग वक्त में कोई दूसरा वकील भी तो नहीं मिल सकता।
डॉक्टर– मुझे खुद निहायत अफसोस है। मगर जब तक दूकान है तब तक खरीदारों की खातिर करनी ही पड़ेगी। यह पेशा ऐसा मनहूस है कि इसमें आईन पर कायम रहना दुश्वार है। मुझे इन मुसीबतजदों का खुद ख्याल है, लेकिन मिस्टर ज्ञानशंकर को नाराज भी तो नहीं कर सकता। और जनाब, साफ बात तो यह है कि जब काफिर हुए तो शराब से क्यों तौबा करें? जब वकालत का सियाह जामा पहना तो उस पर शराफत का सुफेद दाग क्यों लगायें? जब लूटने पर आये तो दोनो हाथों से क्यों न समेटें? दिल में दौलत का अरमान क्यों रह जायें? बनियों को लोग ख्वामख्वाह लालची कहते हैं। इस लकब का हक हमको है। दौलत हमारा दीन है, ईमान है। यह न समझिए कि इस पेशे के जो लोग चोटी पर पहुँच गये हैं, वे ज्यादा रोशन ख्याल हैं। नहीं जनाब, वे बगुले भगत हैं। ऐसे खामोश बैठे रहते हैं, गोया दुनिया से कोई वास्ता नहीं लेकिन शिकार नजर आते ही आप उनकी झपट और फुरती देखकर दंग हो जायेंगे। जिस तरह कमाई बकरे को सिर्फ वजन के एतबार से देखता है उसी तरह हम इंसान को महज इस एतबार से देखते हैं कि वह, कहाँ तक आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा है। लोग इसे आजाद पेशा कहते हैं, मैं इसे इन्तहा दरजे की गुलामी कहता हूँ। अभी चन्द महीने हुए मेरे भाई की शादी दरपेश थी। सादात के कस्बे में बारात गयी थी। तीन दिन बारात वहाँ मुकीम रही। मैं रोज सवेरे यहाँ चला आता था और रात की गाड़ी से लौट जाता था। सभी रस्में मेरी गैर-हाजिरी में अदा हुईं। एक दिन भी कचहरी का नागा नहीं किया। मैं अपनी इस हवस को मकरूह समझता हूँ। और जिन्दगी भर उस आदमी का शुक्रगुजार रहूँगा जो मुझे इस मर्ज से नजात दे दे।
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