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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


राजा– मैं अपने मुकदमें को मुलतवी नहीं कर सकता। मुमकिन है मैनेजर कोई और चाल खेल जाय।

डॉक्टर– आप मुतलक अन्देशा न करें, मैंने मुकदमे को हाथ में ले लिया। अपने दीवान साहब को भेज दीजिएगा, वकालतनामा तैयार हो जायेगा। मैं कागजात देखकर फौरन दावा दायर कर दूँगा। गोरखपुर गया तो आपके कागजात लेता जाऊँगा।

घड़ी में दस बजे खानसामा ने दस्तरखान बिछाया। भोजनालय इस दफ्तर के बगल ही में था। मसाले की सुगन्ध कमरे में फैल गयी, लेकिन डॉक्टर साहब अपना शिकार फंसाने में तल्लीन थे। भय होता था मैं भोजन करने चला जाऊँ और शिकार हाथ से निकल न जाय। लगभग आध घंटे तक वह राजा साहब से मुकदमे के सम्बन्ध में बातें करते रहे। राजा साहब के जाने के बाद वह दस्तरखान पर बैठे। खाना ठंडा हो गया था। दो-चार ही कौर खाने पाये थे कि ११ बज गये दस्तरखान से उठ बैठे। जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और कचहरी चले। रास्ते में पछताते जाते थे कि भरपेट खाने भी नहीं पाया। आज पुलाव कैसा लजीज बना था। इस पेशे का बुरा हो, खाने की फुर्सत नहीं। हाँ, रानी को क्या जवाब दूँ? नीति तो यही है कि जब तक किसानों का मामला तय न हो जाय, कहीं न जाऊँ। लेकिन यह ५०० रुपये रोज का नुकसान कैसे बर्दाश्त करूँ? फिर एक बड़ी रियासत से ताल्लुक हो रहा है। साल में सैकड़ों मुकदमें होते होंगे, सैकड़ों अपीले होती होंगी। वहाँ अपना रंग जरूर जमाना चाहिए। मुहर्रिर साहब सामने ही बैठे थे, पूछा– क्यों मुंशीजी, रानी साहब को क्या जवाब दूँ? आपके ख्याल में इस वक्त वहाँ मेरा जाना मुनासिब है?

मुहर्रिर– हुजूर किसी के ताबेदार नहीं हैं। शौक से जायें। सभी वकील यही करते हैं! ऐसे मौके को न छोड़ें।

डॉक्टर– बदनामी होती है।

मुहर्रिर– जरा भी नहीं। जब यही आम रिवाज है तो कौन किसे बदनाम कर सकता है।

इन शब्दों ने इर्फान अली की दुविधाओं को दूर कर दिया। औंधते को ठेलने का बहाना मिल गया। ज्यों ही मोटर कचहरी में पहुँची, प्रेमशंकर दौड़े हुए आये और बोले, मैं तो बड़ी चिन्ता में था। पेशी हो गई।

डॉक्टर– अमौली के राजा साहब आ गये, इससे जरा-देर हो गयी, खाना भी नहीं नसीब हुआ। इस पेशे की न जाने क्यों लोग इतनी तारीफ करते हैं? असल में इससे बदतर कोई पेशा नहीं। थोड़े दिनों में आदमी कोल्हू का बैल बन जाता है।

प्रेमशंकर– आप उधर कहाँ तशरीफ लिये जाते हैं?

डॉक्टर– जरा सब-जज के इजलास में एक बात पूछने। आप चले, मैं अभी आता हूँ।

प्रेम– सरकारी वकील ने बहस शुरू कर दी है।

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