सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये का नुकसान हो रहा है और अभी मालूम नहीं कितने दिन लगेंगे। लाहौल! फिर रुपये की तरफ ध्यान गया। कितना ही चाहता हूँ कि दिल को इधर न आने दूँ, मगर ख्याल आ ही जाता है। वकालत छोड़ते भी नहीं बनती। ज्ञानशंकर से प्रोफेसरी के लिए कह तो आया हूँ, लेकिन जो सचमुच यह जगह मिल गयी तो टेढ़ी खीर होगी! मैं अब ज्यादा दिनों तक इस पेशे में रह नहीं सकता, और न सही तो सेहत के लिए जरूर ही छोड़ देना पड़ेगा। बस, यही चाहता हूँ कि घर बैठे १००० रुपये माहवारी रकम मिल जाया करे। अगर प्रोफेसरी से १००० रुपये भी मिले तो काफी होगा। नहीं, अभी छोड़ने का वक्त नहीं आया। ३ साल तक सख्त मेहनत करने के बाद अलबत्ता छोड़ने का इरादा कर सकता हूँ। लेकिन इन तीन वर्षों तक मुझे चाहिए कि रियासत और मुरौवत को बालायताक रख दूँ। सबसे पूरा मेहताना लूँ, वरना आजकल की तरह फँसता रहा तो जिन्दगी भर छुटकारा न होगा।
हाँ, तो आज इस मुकदमे में बहस होगी। उफ! अभी तक तैयार नहीं हो सका। गवाहों के बयानों पर निगाह डालने का भी मौका न मिला। खैर, कोई मुजायका नहीं है कुछ न कुछ बातें तो याद ही हैं। बहुत-कुछ उधर के वकील की तकरीर से सूझ जायेंगी। जरा नमक-मिर्च और मिला दूँगा, खासी बहस हो जायेगी। यह तो रोज का ही काम है,इसकी क्या फिक्र...
इतने में अमौली के राजा साहब की मोटर आ पहुँची। डॉक्टर साहब ने बाहर निकल कर राजा साहब का स्वागत किया। राजा साहब अँग्रेजी में कोरे, लेकिन अँग्रेजी रहन-सहन रीति-नीति में पारंगत थे। उनके कपड़े विलायत से सिल कर आते थे। लड़कों को पढ़ाने के लिए लेडियाँ नौकर थीं और रियायत का मैनेजर भी अंग्रेज था। राजा साहब का अधिकांश समय अंग्रेजी दूकानों की सैर में कटता था। टिकट और सिक्के जमा करने का शौक था। थिएटर जाने में कभी नागा न करते थे। कुछ दिनों से उनके मैनेजर ने रियासत की आमदनी पर हाथ लपकाना शुरू किया था। इसलिए उन्हें हटाना चाहते थे, किन्तु अँग्रेज अधिकारियों के भय से साहस न होता था। मैनेजर स्वयं राजा को कुछ न समझता था, आमदनी का हिसाब देना तो दूर रहा। राजा साहब इस मामले को दीवानी में लाने का विचार कर रहे थे। लेकिन मैनेजर साहब की जज से गहरी मैत्री थी, इसलिए अदालत के और वकीलों ने इस मुकदमें को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। निराश हो कर राजा साहब ने इर्फान अली की शरण ली थी। डॉक्टर साहब देर तक उनकी बातें सुनते रहे। बीच-बीच में तस्कीन देते थे। आप घबरायें नहीं। मैं मैनेजर साहब से एक-एक कौड़ी वसूल कर लूँगा। यहाँ के वकील दब्बू हैं, खुशामगी टट्टू– पेशे को बदनाम करने वाले। हमारा पेशा आजाद है। हक की हिमायत करना हमारा काम है, चाहे बादशाह से ही क्यों न मुकाबला करना पड़े। आप जरा भी तरद्दुद न करें। मैं सब बातें ऐसी खूबसूरती से तय कर दूँगा कि आप पर छींटा भी न आने पायेगा। अकस्मात तार के चपरासी ने आ कर डॉक्टर साहब को एक तार का लिफाफा दिया। ज्ञानशंकर ने एक मुकदमें की पैरवी करने के लिए ५००) रुपये रोज पर बुलाया था।
डॉक्टर महोदय ने राजा साहब से कहा यह पेशा बड़ा मूजी है। कभी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। रानी गायत्रीदेवी का तार है, गोरखपुर बुला रही हैं।
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