सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
भोला– झूठी कहीं की, मैं कब जुआ खेलता हूँ?
प्रेम– सच कहना भोला, क्या तुम अब भी जुआ खेलते हो? तुम मुझसे कई बार कह चुके हो कि मैंने बिलकुल छोड़ दिया।
भोला का गला भर आया। नशे में हमारे मनोभाव अतिशयोक्तिपूर्ण हो जाते हैं। वह जोर से रोने लगा। जब ग्लानि का वेग कम हुआ तो सिसकियाँ लेता हुआ बोला– मालिक, यह आपका एक हुकूम है, जिसे मैंने टाला है। और कोई बात न टाली। आप मुझे यहीं बैठा कर सिर पर १०० जूते गिन कर लगायें, तब यह भूत उतरेगा। मैं रोज सोचता हूँ कि अब कभी न खेलूँगा, पर साँझ होते ही मुझे जैसे कोई ढकेल कर फड़ की ओर ले जाता है। हा! मैं आप से झूठ बोला, आप से कपट किया! भगवान् मेरी क्या गति करेंगे? यह कह कर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा!
लज्जा-भाव की यह पवित्रता देख कर प्रेमशंकर की आँखें भर आयीं। वह शराबी और जुआरी भोला, जिसे वह नीच समझते थे, ऐसा पवित्रात्मा, ऐसा निर्मल हृदय था! उन्होंने उसे गले लगा लिया, तुम रोते क्यों हो? मैं तुम्हें कुछ कहता थोड़े ही हूँ।
भोला– आपका कुछ न कहना ही तो मुझे मार डालता है मुझे गालियाँ दीजिए कोडे़ से मारिए, तब यह नशा उतरेगा। हम लातों के देवता बातों से नहीं मानते।
प्रेम– तुम्हारी तलब बुधिया को दे दिया करूँ?
भोला– जी हाँ, आज से मुझे एक कौड़ी भी न दिया करें।
प्रेम– (बुधिया से) लेकिन जो यह जुए से भी बुरी कोई आदत पकड़ ले तो?
बुधिया– जुएँ से बुरी चोरी है, जिस दिन इसे चोरी करते देखूँगी, जहर दे दूँगी। मुझे राँड़ बनना मंजूर है, चोर की लुगाई नहीं बन सकती।
उसने भोला का हाथ पकड़ कर घर चलने का इशारा किया और प्रेमशंकर के लिए एक जटिल समस्या छोड़ गयी।
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