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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेम– मुझसे तो वह यही कहता है कि मैंने जुआ छोड़ दिया। जब कभी रुपये माँगता है, तो सहज कहता है कि खाने को नहीं है। न दूँ तो क्या करूँ?

बुधिया– तभी तो उसके मिजाज नहीं मिलते। कुछ पेशगी तो नहीं ले गया है?

प्रेम– उसी से पूछो, ले गया होगा तो बतायेगा न।

बुधिया– आपके यहाँ हिसाब-किताब नहीं है क्या?

प्रेम– मुझे कुछ याद नहीं है।

बुधिया– आपको याद नहीं है तो वह बता चुका! शराबियों- जुआरियों के भी कहीं ईमान होता है?

प्रेम– क्यों, क्या शराब से ईमान धुल जाता है?

बुधिया– धुल नहीं जाता तो और क्या? देखिए, बुलाके आपके मुँह पर पूछती हूँ। या नारायण निगोड़ा तलब की तलब उड़ा देता है, उस पर पेशगी ले कर खेल डालता है। अब देखूँ, कहाँ से भरता है?

यह कह कर वह झल्लायी हुई गयी और जरा देर से भोला को साथ लिये आयी। भोला की आँखें लाल थीं। लज्जा से सिर झुकाये हुए था। बुधिया ने पूछा, बताओ तुमने बाबू जी से कितने रुपये पेशगी लिये हैं?

भोला– ने स्त्री की ओर सरोष नेत्रों से देख कर कहा– तू कौन होती है पूछने वाली? बाबू जी जानते नहीं क्या?

बुधिया– बाबूजी ही तो पूछते हैं, नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी?

भोला– इनके मेरे ऊपर लाख आते हैं और मैं इनका जन्म भरका गुलाम हूँ।

बुधिया– देखा बाबूजी! कहती न थी, वह कुछ न बतायेगा? जुआरी कभी ईमान के सच्चे हुए हैं कि यही होगा?

भोला– तू समझती है कि मैं बातें बना रहा हूँ। बातें उनसे बनायी जाती हैं जो दिल के खोटे होते हैं, जो एक धेला दे कर पैसे का काम कराना चाहते हैं। देवताओं से बात नहीं बनायी जाती। यह जान इनकी है, यह तन इनका है, इशारा भर मिल जाय।

बुधिया– अरे जा, जालिए कहीं के! बाबू जी बीसों बार समझा के हार गये। तुझसे एक जुआ तो छोड़ा जाता नहीं, तू और क्या करेगा? जान पर खेलने वाले और होते हैं।

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