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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


मिर्जा साहब ने ऐसा मुँह बनाया, मानो समस्त संसार की चिन्ता-भार उन्हीं के सिर पर लदा हुआ हो और बोले, नालिश क्यों करेंगे? कह दो थोड़ा– सा जहर भेज दें, खा कर मर जाऊँ। किसी तरह दुनिया से नजात मिले। उन्हें तो खुदा ने लाखों दिये हैं, घर में रुपयों के ढेर लगे हुए हैं। उन्हें क्या खबर कि यहाँ जान पर क्या गुजर रही है? कुन्बा बड़ा, आमदनी का कोई जरिया नहीं, दुनिया चालाक हत्थे नहीं चढ़ती क्या करूँ! मगर इन्शा अल्लाह– एक महीने के अन्दर आ कर सब नया-पुराना हिसाब साफ कर दूँगा। अबकी मुझे वह चाल सूझी है जो कभी पट ही नहीं पड़ सकती। इन लड़कों की ग़ज़लें सुन कर मजलिसें फड़क उठेंगी। जा कर सेठ जी से कह दो, जहाँ इतने दिनों सब्र किया है, एक महीना और करें।

प्यादे ने हँस कर कहा, आप तो मिर्जा साहब, ऐसी बातें करके टाल देते हैं। और वहाँ मुझ पर लताड़ पड़ती है। मुनीम जी कहते हैं, तुम जाते ही न होगे या कुछ ले-दे के चले आते होगे!

मिर्जा साहब ने एक चवन्नी उसको भेंट की। उसके चले जाने के बाद उन्होंने मौलवी साहब को बुलाया और बोले, क्यों मियाँ अमजद, मैंने तुमसे ताकीद कर दी थी कि कोई आदमी ऊपर न आने पाये। इस प्यादे को क्यों आने दिया? मुँह में दही जमा हुआ था? इतना कहते न बनता था कि कहीं बाहर गये हुए हैं। अगर इस तरह तुम लोगों को आने दोगे तो सुबह से शाम तक ताँता लगा रहेगा। आखिर तुम किस मरज की दवा हो?

अमजद– मैं तो उससे बार-बार कहता रहा कि मियाँ कहीं बाहर गये हुए हैं, लेकिन वह जबरदस्ती जीने पर चढ़ आया। क्या करता, उससे क्या फौजदारी करता?

मिर्जा– बेशक उसे धक्का दे कर हटा देना चाहिए था।

अमजद– तो जनाब रूखी रोटी और पतली दाल में इतनी ताकत नहीं होती, उस पर दिमाग लौड़े चर जाते हैं। हाथा-पाई किस बूते पर करूँ? कभी सालन तक नसीब नहीं होता। दरवाजे पर पड़ा-पड़ा मसाले और प्याज की खुशबू लिया करता हूँ। सारा घर पुलाव और जरदे उड़ाता है। यहाँ खुश्क रोटियों पर ही बसर है। दस्तरखान पर खाने को तरस गया। रोज वही मिट्टी की प्याली सामने आ जाती है। मुझे भी तर माल खिलाइए। फिर देखूँ, कौन घर में कदम रखता है।

मिर्जा– लाहौल बिलाकूबत तुम हमेशा पेट का ही रोना रोते रहे। अरे मियाँ, खुदा का शुक्र करो कि बैठे-बैठे रोटियाँ तो तोड़ने को मिल जाती हैं, वरना इस वक्त कहीं फक-फक फाँय-फाँय करते होते।

अमजद– आपसे दिल की बात कहता हूँ तो आप गालियाँ देने लगते हैं। लीजिए, जाता हूँ, अब अगर सूरत दिखाऊँ तो समझिएगा कोई कमीना था। खुदा ने मुँह दिया तो रोजी भी देगा। इस सुदेशी के जमाने में मैं भूखा न मरूँगा।

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