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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


सातवें दिन शाम को वह घर से लौट आए। उनकी पत्नी और पुत्री भी साथ थी। मेरी पत्नी ने शक्कर और दही खिलाकर उनका स्वागत किया। ‘मुँह दिखाई’ के दो रुपये दिये। उनकी पुत्री को भी मिठाई खाने को दो रु. दिए। मैंने समझा था, उमापति आते-ही-आते मेरे रुपये गिनने लगेंगे, लेकिन उन्होंने पहर रात गये तक रुपयों का नाम न लिया। जब मैं घर में सोने गया तो बीबी से कहा–इन्होंने तो रुपये नहीं दिए जी!

पत्नी ने व्यंग्य से हँसकर कहा–तो क्या सचमुच तुम्हें आशा थी कि वह आते-ही-आते तुम्हारे हाथ में रुपये रख देंगे? मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था कि फिर पाने की आशा से रुपये मत दो; यही समझ लो कि किसी मित्र को सहायतार्थ दे दिए। लेकिन तुम भी विचित्र आदमी हो।

मैं लज्जित और चुप रहा। उमापति दो दिन रहे। मेरी पत्नी उनकी यथोचित आदर-सत्कार करती रही। लेकिन मुझे उतना संतोष न था। मैं समझता था उन्होंने मुझे धोखा दिया।

तीसरे दिन प्रातःकाल वह चलने को तैयार हुए। मुझे अब भी आशा थी कि वह रुपये देकर जाएँगे। लेकिन जब उनकी नई राम कहानी सुनी तो सन्नाटे में आ गया। वह बिस्तरा बाँधते हुए बोले–बड़ा ही खेद है कि मैं अबकी बार आपके रुपये न दे सका। बात यह है कि मकान पर पिताजी से भेंट ही न हुई। वह तहसील-वसूल करने गाँव चले गये थे, और मुझे इतना अवकाश न था कि गाँव तक जाता। रेल का रास्ता नहीं है। बैलगाड़ियों पर जाना पड़ता है। इसलिए मैं एक दिन मकान पर रहकर ससुराल चला गया। वहाँ सब रुपये खर्च हो गए। बिदाई के रुपये न मिल जाते, तो यहाँ तक आना कठिन था। अब मेरे पास रेल का किराया तक नहीं है। आप मुझे २५ रुपये और दे दें। मैं वहाँ जाते ही जाते भेज दूँगा। मेरे पास इक्के तक का किराया नहीं है।

जी में तो आया कि टका-सा जवाब दे दूँ; पर इतनी अशिष्टता न हो सकी।

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