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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


स्त्री–क्या करोगे?

मैं–मेरे जो मित्र कल आए हैं, उनके रुपये किसी ने गाड़ी में चुरा लिये। उन्हें स्त्री को विदा कराने ससुराल जाना है। लौटती बार देते जायँगे।

पत्नी ने व्यंग्य से कहा–तुम्हारे यहाँ जितने मित्र आते हैं, सब तुम्हें ठगने ही आते हैं। सभी संकट में पड़े रहते हैं। मेरे पास रुपये नहीं हैं।

मैंने खुशामद करते हुए कहा–लाओ दे दो, बेचारे तैयार खड़े हैं। गाड़ी छूट जाएगी।

स्त्री–कह दो, इस समय घर में रुपये नहीं हैं।

मैं–यह कह देना आसान नहीं है। इसका अर्थ तो यह है कि मैं दरिद्र ही नहीं, मित्र-हीन भी हूँ, नहीं तो क्या मेरे किए ५० रु. का इंतजाम नहीं हो सकता। उमापति को कभी विश्वास न आएगा कि मेरे पास रुपये नहीं हैं। इससे वही अच्छा हो कि साफ-साफ यह कह दिया जाय कि ‘हमको आप पर भरोसा नहीं है, हम आपको रुपये नहीं दे सकते।’ कम-से-कम अपना पर्दा तो ढका रह जाएगा।

श्रीमतीजी ने झुँझलाकर संदूक की कुँजी मेरे आगे फेंक दी और कहा-तुम्हें जितनी बहस करनी आती है, उतना कहीं आदमियों को परखना आता तो अब तक आदमी हो गए होते! ले जाओ, दे दो। किसी तरह तुम्हारी मरजाद तो बनी रहे। लेकिन उधार समझकर मत दो, यह समझ लो कि पानी में फेंके देते हैं।

मुझे आम खाने से काम था, पेड़ गिनने से नहीं, चुपके से रुपये निकाले और लाकर उमापति को दे दिए। फिर लौटती बार आकर रुपये दे जाने का आश्वासन देकर वह चल दिए।

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