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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


फिर पत्नी के पास गया और रुपये माँगे। अबकी उन्होंने बिना कुछ कहे-सुने रुपये निकालकर मेरे हवाले कर दिए। मैंने उदासीन भाव से रुपये उमापतिजी को दे दिए। जब उनकी अर्धांगिनी जीने से उतर गई, तो उन्होंने बिस्तर उठाया और मुझे प्रणाम किया। मैंने बैठे-बैठे सिर हिलाकर जवाब दिया। उन्हें सड़क तक पहुँचाने भी न गया।

एक सप्ताह बाद उमापतिजी ने लिखा–मैं कार्यवश बरार जा रहा हूँ। लौटकर रुपये भेजूँगा।

१५ दिन बाद मैंने एक पत्र लिखकर कुशल-समाचार पूछे। कोई उत्तर न आया। १५ दिन बाद फिर रुपयों का तकाजा किया। उसका भी यही हाल! एक रजिस्ट्री पत्र भेजा। वह पहुँच गया, इसमें संदेह नहीं; लेकिन जवाब उसका भी न आया। समझ गया, समझदार जोरू ने जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य था। निराश होकर चुप हो रहा।

इन पत्रों की चर्चा भी मैंने पत्नी से नहीं की, और न उसी ने कुछ इस बारे में पूछा।

इस कटप-व्यवहार का मुझ पर वही असर पड़ा, जो साधारणतः स्वाभाविक रूप से पड़ना चाहिए था। कोई ऊँची और पवित्र आत्मा इस छल पर भी अटल रह सकती थी। उसे यह समझकर संतोष हो सकता था कि मैंने अपने कर्त्तव्य को पूरा कर दिया। यदि ऋणी ने ऋण नहीं चुकाया, तो मेरा क्या अपराध। पर मैं इतना उदार नहीं हूँ। यहाँ तो महीनों सिर खपाता हूँ, कलम घिसता हूँ, तब जाकर नगद-नारायण के दर्शन होते हैं।

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