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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है

त्यागी का प्रेम

लाला गोपीनाथ को युवावस्था से ही दर्शन से प्रेम हो गया था। अभी वह इण्टरमीडिएट-क्लास में थे कि मिल और बर्कले के वैज्ञानिक विचार उन्हें कंठस्थ हो गए थे। उन्हें किसी प्रकार के विनोद-प्रमोद से रुचि न थी, यहाँ तक कि कालेज के क्रिकेट-मैचों में भी उनको उत्साह न होता था। हास्य-परिहास से कोसों भागते, और उनसे प्रेम की चर्चा करना तो मानो बच्चे को जूजू से डराना था। प्रातःकाल घर से निकल जाते, और शहर से बाहर किसी सघन वृक्ष की छाँह में बैठकर दर्शन का अध्ययन करने में निरत हो जाते। काव्य, अलंकार, उपन्यास सभी को त्याज्य समझते थे। शायद ही अपने जीवन में उन्होंने कोई किस्से-कहानी की किताब पढ़ी हो। इसे केवल समय का दुरुपयोग ही नहीं, वरन् मन और बुद्धि-विकास के लिए घातक मानते थे। इसके साथ ही वह उत्साहहीन न थे। सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते। स्वदेश-वासियों की सेवा के किसी अवसर को हाथ से न जाने देते। बहुधा मुहल्ले के छोटे-छोटे दूकानदारों की दूकान पर जा बैठते और उनके घाटे-टोटे, मन्दे-तेज की राम-कहानी सुनते।

शनैः-शनैः कालेज से उन्हें घृणा हो गई। उन्हें अब अगर किसी विषय से प्रेम था, तो वह दर्शन था। कालेज की बहुविषयक शिक्षा उनके दर्शनानुराग में बाधक होती। अतएव उन्होंने कालेज छोड़ दिया और एकाग्रचित होकर विज्ञानो-पार्जन करने लगे। किन्तु दर्शनानुराग के साथ-ही-साथ उनका देशानुराग भी बढ़ता गया। कालेज छोड़ने के थोड़े ही दिन बाद वह अनिवार्यतः जाति-सेवकों के दल में सम्मिलित हो गए। दर्शन में भ्रम था, अविश्वास था, अंधकार था। जाति-सेवा में सम्मान था, यश था और दोनों का आशीर्वाद था। उनका वह सदनुराग, जो बरसों से वैज्ञानिक वादों के नीचे दबा हुआ था, वायु के प्रचंड वेग के साथ निकल पड़ा। नगर के सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़े। देखा, तो मैदान खाली था। जिधर आँख उठाते, सन्नाटा दिखाई देता। ध्वजाधारियों की कमी न थी, पर सच्चे हृदय कहीं नजर न आते थे। चारों ओर उनकी खींच होने लगी। किसी संस्था के मंत्री बने, किसी के प्रधान; किसी के कुछ किसी के कुछ। इसके आवेग में दर्शनानुराग भी बिदा हुआ। पिंजरे में गानेवाली चिड़िया विस्तृत पर्वत-राशियों में आकर अपना राग भूल गई ! अब भी वह समय निकालकर दर्शन-ग्रन्थों के पन्ने उलट-पलट लिया करते थे, विचार और अनुशीलन का अवकाश कहाँ? नित्य मन में यही आशा संग्राम होता रहता कि किधर जाऊँ? उधर या इधर विज्ञान अपनी ओर खींचता, देश अपनी ओर।

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