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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मैंने वहाँ ठहरना उचित न समझा। इन दोनों प्राणियों के हृदय में कितनी ही बातें आ रही होंगी, दोनों क्या-क्या कहना और क्या-क्या सुनना चाहते होंगे, यह विचारकर मैं उठी खड़ी हुई और बोली–बहन, अब मैं जाती हूँ, शाम को फिर आऊँगी।

विद्याधरी ने मेरी ओर आँखें उठायीं, और पुतलियों के स्थान पर हृदय रखा हुआ था। दोनों आँखें आकाश की ओर उठाकर बोली–ईश्वर तुम्हें इस यश का फल दें।

ऐ मुसाफिर, मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया था, किन्तु आज का-सा आनंद मुझे कभी न प्राप्त हुआ था।

जब मैं ज्ञानसागर पर पहुँची, तो दोपहर हो आया था। विद्याधरी की शुभ कामना मुझसे पहले ही पहुँच चुकी थी। मैंने देखा कि कोई पुरुष गुफा से निकल कर ज्ञानसागर की ओर चला जाता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस समय यहाँ कौन आया! लेकिन जब वह समीप आ गया, तो मेरे हृदय में ऐसी तरंगे उठनें लगीं, मानो वह छाती से बहार निकल पड़ेंगी। यह मेरे प्राणेश्वर, मेरे पति थे। मैं उनके चरणों पर गिरना ही चाहती थी कि उनका करपाश मेरे गले में पड़ गया।

पूरे दस वर्षों के बाद आज मुझे यह शुभ दिन देखना नसीब हुआ। मुझे उस समय ऐसा जान पड़ता था कि ज्ञानसागर के कमल मेरे ही लिए खिले हैं, गिरिराज ने मेरे ही लिए फूल की शय्या बिछायी है, हवा मेरे ही लिए झूमती हुई आ रही है।

दस वर्षों के बाद मेरा उजड़ा हुआ घर बसा। गए हुए दिन लौटे। मेरे आनंद का अनुमान कौन कर सकता है!

मेरे पति ने प्रेम-करुण आँखों से देखकर कहा–प्रियंवदा!

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