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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मैं उसके साथ हो लिया। पहले एक लम्बी दालान मिली, जिसमें भाँति-भाँति के पक्षी पिंजरों में बैठे, चहक रहे थे। इसके बाद एक विस्तृत बारहदरी में पहुँचा, जो सम्पूर्णतः पाषाण की बनी हुई थी। मैंने ऐसी सुन्दर गुलकारी ताजमहल के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखी। फ़र्श की पच्चीकारी को देखकर उस पर पाँव धरते संकोच होता था। दीवारों पर निपुण चित्रकारों की रचनाएँ शोभायमान थीं। बारहदरी के दूसरे सिरे पर एक चबूतरा था, जिस पर मोटी क़ालीनें बिछी हुई थीं। मैं फर्श पर बैठ गया। इतने में एक लम्बे कद का रूपवान पुरुष अन्दर आता हुआ दिखाई दिया। उसके मुख पर प्रतिभा की ज्योति झलक रही थी और आँखों से गर्व टपका पड़ता था। उसकी काली और भाले की नोक के सदृश तनी मुई मूछें, उसके भौंरे की तरह काले घुँघराले बाल उसकी आकृति की कठोरता को नम्र कर देते थे। विनय-पूर्ण वीरता का इससे सुन्दर चित्र नहीं खिंच सकता था।

उसने मेरी ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा–आप मुझे पहचानते हैं?

मैं अदब से खड़ा होकर बोला–मुझे आपसे परिचय का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ?

वह कालीन पर बैठ गया, और बोला–मैं शेरसिंह हूँ।

मैं आवाक् रह गया। शेरसिंह ने फिर कहा–क्या आप प्रसन्न नहीं है कि आपने मुझे पिस्तौल का लक्ष्य नहीं बनाया। मैं तब पशु था, अब मनुष्य हूँ।

मैंने विस्मित होकर कहा–आपको इस रूप में देखकर मुझे जितना आनन्द हो रहा है, प्रकट नहीं कर सकता। यदि आज्ञा हो तो आपसे एक प्रश्न करूँ।

शेरसिंह ने मुस्कराकर कहा–मैं समझ गया पूछिए।

मैं–जब आप समझ गये तो मैं पूछूँ क्यों?

शेरसिंह–सम्भव है, मेरा अनुमान ठीक न हो।

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