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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मैं–मुझे भय है कि उस प्रश्न से आपको दुःख न हो।

शेरसिंह–कम-से-कम आपको मुझसे ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए।

मैं–विद्याधरी के भ्रम में कुछ सार था?

शेरसिंह ने सिर झुकाकर कुछ देर में उत्तर दिया–जी हाँ, था। जिस वक्त मैंने उसकी कलाई पकड़ी थी, उस समय आवेश से मेरा एक-एक अंग काँप रहा था। मैंने क्या किया, यह तो याद नहीं, केवल इतना जानता हूँ कि मैं उस समय अपने होश में न था। मेरी पत्नी ने मेरे उद्धार के लिए बड़ी-बड़ी तपस्याएँ कीं, किन्तु अभी तक मुझे अपनी ग्लानि से निवृत्ति नहीं हुई। संसार की कोई वस्तु स्थिर नहीं, किन्तु पाप की कालिमा अमर और अमिट है। यश और कीर्ति कालांतर में मिट जाती है, किन्तु पाप का धब्बा नहीं मिटता। मेरा विचार है कि ईश्वर भी उस दाग को नहीं मिटा सकता। कोई तपस्या, कोई दंड, कोई प्रायश्चित्त इस कालिमा को नहीं धो सकता। पातितोद्धार की कथाएँ और तोबा या कन्फ़ेशन करके पाप से मुक्त हो जाने की बात, ये सब संसार-लिप्सी पाखंडी धर्मावलम्बियों की कल्पनाएं हैं।

हम दोनों ये ही बातें कर रहे थे कि रानी प्रियंवदा सामने आकर खड़ी हो गईं। मुझे वह अनुभव हुआ, जो बहुत दिनों से पुस्तकों में पढ़ा करता था कि सौंदर्य में प्रकाश होता है। आज इसकी सत्यता मैंने अपनी आँखों देखी। मैंने जब उन्हें पहले देखा था, तो निश्चय किया था कि यह ईश्वरीय कला नैपुण्य की पराकाष्ठा है, पर अब, जब मैंने उसे दुबारा देखा, तो ज्ञात हुआ कि वह इस, असल की नकल थी। प्रियंवदा ने मुस्कराकर कहा–मुसाफिर, तुझे स्वदेश में भी कभी हम लोगों की याद आयी थी?

अगर मैं चित्रकार होता, तो उसके मधुर हास्य को चित्रित करके प्राचीन गुणियों को चकित कर देता। उसके मुँह से यह प्रश्न सुनने के लिए मैं तैयार न था। यदि उसके उत्तर में मन के आंतरिक भावों को प्रकट कर देता, तो शायद मेरी धृष्टता होती, और शेरसिंह की त्योरियाँ बदल जातीं। मैं यह भी न कह सका कि मेरे जीवन का सबसे सुखद भाग वही था, जो ज्ञानसरोवर के तट पर व्यतीत हुआ था। किन्तु मुझे इतना साहस भी न हुआ। मैंने दबी जबान से कहा–क्या मैं मनुष्य नहीं हूँ?

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