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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


प्रभात का समय था। गिरिराज सुनहरा मुकुट पहने खड़े थे। मन्द समीर के आनंदमय झोकों से ज्ञानसागर का जल निर्मल प्रकाश से प्रतिबिम्बित होकर ऐसा लहरा रहा था, मानों अगणित अप्सराएँ, आभूषणों से जगमागाती हुई नृत्य कर रही हों। लहरों के साथ शतदल यों झकोरे लेते थे, जैसे कोई बालक हिंडौले में झूल रहा हो। फूलों के बीच में श्वेत हंस तैरते हुए ऐसे मालूम होते थे, मानो लालिमा से छाए हुए आकाश पर तारागण चमक रहे हों। मैंने उत्सुक नेत्रों से इस गुफा की ओर देखा, तो वहाँ एक विशाल राजप्रसादा आसमान से कंधा मिलाए खड़ा था। एक ओर रमणीय उपवन था। दूसरी ओर एक गगनचुम्बी मन्दिर। मुझे यह कायापलट देखकर आश्चर्य हुआ। मुख्य द्वार पर जाकर देखा, तो दो चोबदार ऊदे मखमल की वर्दियाँ पहने, जरी की पट्टी बाँधे खड़े थे। मैंने उनसे पूछा–क्यों भाई यह किसका महल है?

चोबदार–अर्जुननगर की महारानी का।

मैं–क्या अभी हाल ही में बना है?

चोबदार–हाँ, तुम कौन हो?

मैं–एक परदेशी यात्री हूँ। क्या तुम महारानी को मेरी सूचना दे दोगे?

चोबदार–तुम्हारा क्या नाम है, और कहाँ से आते हो?

मैं–उनसे केलल इतना कह देना कि योरप से एक यात्री आया है, और आपके दर्शन करना चाहता है।

चोबदार भीतर चला गया और एक क्षण के बाद आकर बोला–मेरे साथ आओ।

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