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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है

राज्य-भक्त

संध्या का समय था। लखनऊ के बादशाह नासिरुद्दीन अपने मुसाहबों और दरबारियों के साथ बाग की सैर कर रहे थे। उनके सिर पर रत्न- जटित मुकुट की जगह अँगरेजी टोपी थी। वस्त्र अँगरेजी ही थे। मुसाहबों में पाँच अँगरेज थे। उनमें से एक के कंधे पर सिर रखकर बादशाह चल रहे थे। तीन-चार हिंदुस्तानी भी थे। उनमें एक राजा बख्तावरसिंह थे। वह बादशाही सेना के अध्यक्ष थे। उन्हें सब लोग ‘जेनरल’ कहा करते थे। वे अधेड़ आदमी थे। शरीर खूब गठा हुआ था। लखनवी पहनावा उन पर बहुत सजता था। मुख से विचारशीलता झलक रही थी। दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था। यह राज्य के प्रधान मन्त्री थे। बड़ी-बड़ी मूँछें और नाटा डील था, जिसे ऊँचा करने के लिए वह तनकर चलते थे। नेत्रों से गर्व टपक रहा था। शेष लोगों में एक कोतवाल था, और दो बादशाह के रक्षक। यद्यपि अभी १९ वीं शताब्दी का आरम्भ ही था, पर बादशाह ने अँग्ररेजी रहन-सहन अख्तियार कर ली थी। भोजन भी प्रायः अँग्ररेजी ही करते थे। अँग्ररेजों पर उनका असीम विश्वास था। वह सदैव उनका पक्ष लिया करते। मजाल न थी कि कोई बड़े-से-बड़े राजा या राजकर्मचारी अंग्ररेज से बराबरी करने का साहस कर सके।

अगर किसी में यह हिम्मत थी, तो वह राजा बख्तावरसिंह थे। उनसे कंपनी का बढ़ता हुआ अधिकार न देखा जाता था; कम्पनी की उस सेना की संख्या, जिसे उसने अवध के राज्य की रक्षा के लिए लखनऊ में नियुक्त किया था, दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी परिमाण से सेना का व्यय भी बढ़ रहा था। राजदरबार उसे चुका न सकने के कारण कम्पनी का ऋणी होता जाता था। बादशाही सेना की दशा हीन से हीनतर होती जाती थी। उसमें न संगठन था न बल। बरसों तक सिपाहियों का वेतन न मिलता। शस्त्र सभी पुराने ढंग के, वरदी फटी हुई, कवायद का नाम नहीं। कोई उनका पूछने वाला न था। अगर राजा बख्तावरसिंह वेतन-वृद्धि या नए शस्त्रों के सम्बन्ध में कोई प्रयत्न करते, तो कम्पनी का रेजीडेंट उसका घोर विरोध और राज्य पर विद्रोहात्मक शक्ति-संचार का दोषारोपण करता। उधर से डाँट पड़ती, तो बादशाह अपना गुस्सा राजा साहब पर उतारते। बादशाह के सभी अँग्ररेज-मुसाहब राजा साहब से शंकित रहते और उनकी जड़ खोदने का प्रयास करते थे। पर वह राज्य का सेवक एक ओर से अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने कर्तव्य का पालन करता जाता था। मजा यह कि सेना भी उनसे संतुष्ट न थी।

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