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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


सुरेश की आशा-नौका डगमगाती। गिड़गिड़ाकर बोले–प्रभा, ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो, मैं बहुत दुखी हूँ। साल-भर से ऐसा कोई दिन नहीं गया कि मैं रोकर न सोया होऊँ।

प्रभा ने उठकर कहा–अपने किए का क्या इलाज? जाती हूँ, आराम कीजिए।

एक क्षण में मंगला की माता आकर बैठ गई, बोली–बेटा, तुमने तो बहुत पढ़ा-लिखा है, देश-विदेश घूम आये हो, सुंदर बनने की कोई दवा कहीं नहीं देखी?

सुरेश ने विनयपूर्वक कहा–माताजी, अब ईश्वर के लिए और लज्जित न कीजिए।

माता–तुमने तो मेरी बेटी के प्राण ले लिए! क्या मैं तुम्हें लज्जित करने से भी गई! जी में तो आता था कि ऐसी-ऐसी सुनाऊँगी कि तुम भी याद करोगे; पर मेरे मेहमान हो, क्या जलाऊँ? आराम करो।

सुरेश आशा और भय की दशा में पड़े करवटें बदल रहे थे कि एकाएक द्वार पर किसी ने धीरे से कहा–जाती क्यों नहीं, जागते तो हैं!

किसी ने जवाब दिया–लाज आती है।

सुरेश ने आवाज पहचानी। प्यासे को पानी मिल गया। एक क्षण में मंगला उनके सम्मुख आयी और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। सुरेश को उसके मुख पर एक अनूठी छवि दिखाई दी, जैसे कोई रोगी स्वास्थ्य-लाभ कर चुका हो।

रूप वही था, पर आँखें और थीं।

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